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छोटी कहानी इन हिंदी

जब मेघनाद का कटा हुआ सर बोल पड़ा

कहानी का सारांश

  1. सुलोचना नागकन्या वासुकी की पुत्री और मेघनाद की पतिव्रता पत्नी थी।
  2. राम-रावण युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद का वध किया, लेकिन उनके सिर को भूमि पर नहीं गिरने दिया क्योंकि सुलोचना एक परम पतिव्रता थी।
  3. मेघनाद की भुजा ने सुलोचना को उनकी मृत्यु की जानकारी दी और यह भी बताया कि उनका सिर राम के पास है।
  4. रावण ने सुलोचना को राम के पास भेजा ताकि वह अपने पति का सिर ला सके।
  5. जब सुलोचना राम के पास आई, तो राम ने उसे शांत किया और सम्मान के साथ मेघनाद का सिर सौंपा।
  6. सुलोचना ने पतिव्रत की महिमा दिखाते हुए मेघनाद के निर्जीव सिर को हँसाया, जिससे सभी चकित रह गए।
  7. अंत में, सुलोचना ने लंका में पति के शव के साथ सती होने का निर्णय लिया और राम से युद्ध बंद रखने की प्रार्थना की।

इस कथा में सुलोचना की अटूट पतिव्रता और सतित्व की महिमा को प्रमुखता से दर्शाया गया है।

सुलोचना नागकन्या वासुकी की पुत्री और लंकेश रावण के वीर पुत्र मेघनाद की समर्पित पत्नी थीं। राम और रावण के महायुद्ध के दौरान, मेघनाद और लक्ष्मण के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ।

युद्ध से पहले, राम ने लक्ष्मण को निर्देशित किया, “तुम अपनी वीरता और कौशल से महाबली मेघनाद का वध करोगे, लेकिन विशेष ध्यान रखना कि उनका सिर भूमि पर न गिरे। मेघनाद ब्रह्मचर्य व्रत के पालक हैं और सुलोचना परम पतिव्रता है। यदि ऐसे सत्पुरुष के पति का मस्तक भूमि पर गिरेगा, तो हमारी सारी सेना का विनाश हो जाएगा।”

अनुवर्ती युद्ध में, लक्ष्मण ने अपने बाणों से मेघनाद का शिरच्छेद किया लेकिन उसे गिरने नहीं दिया। हनुमान उस कटे हुए सिर को राम के शिविर में ले आए। इसी बीच, मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़कर सुलोचना के पास आ गिरी।

गहन शोक से व्यथित सुलोचना विलाप करने ही वाली थी कि उसे संदेह हुआ कि क्या यह भुजा उसके पति की है। निश्चित करने के लिए उसने कहा, “यदि यह मेरे पति की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का विवरण लिख दो।” अद्भुत रूप से, भुजा ने लेखनी उठाई और लिख दिया कि युद्ध में दिव्य गुणों से सम्पन्न लक्ष्मण ने मेघनाद का वध किया और उनका सिर अब राम के पास है।

यह पढ़कर व्यथित सुलोचना रावण के पास गई, जिन्होंने उसे राम के शिविर जाकर स्वयं मेघनाद का सिर लाने को कहा, क्योंकि वहां के महान आत्माएं उसे निराश नहीं करेंगी। जब सुलोचना वहां पहुंची, तो राम ने उसे शांत किया और आदरपूर्वक मेघनाद का कटा सिर सौंप दिया।

अपने पति का सिर देखकर सुलोचना का हृदय द्रवित हो गया। रोते हुए उसने लक्ष्मण से कहा कि मेघनाद का वध करने पर गर्व न करें, क्योंकि यह दो पतिव्रताओं – उसकी और लक्ष्मण की पत्नी का भाग्य था। उसका पति एक पतिव्रता को अपमानित करने वाले पिता के लिए लड़ा था और उसी कारण उसकी मृत्यु हुई।

योद्धा यह जानकर चकित थे कि सुलोचना को पता था कि सिर कहां है। उसने बताया कि मेघनाद की भुजा ही ने उसे लिखकर सूचित किया था। संदेहवश सुग्रीव ने व्यंग्य किया कि यदि भुजा लिख सकती है तो कटा हुआ सिर भी हँस सकेगा।

पतिव्रत की शक्ति दिखाने के लिए, सुलोचना ने कहा कि यदि वह अपने पति को देवता मानती है तो उनका निर्जीव सिर हँसेगा। जैसे ही उसने यह कहा, सभी के आश्चर्य में, मेघनाद का कटा सिर हँस पड़ा। सभी ने परम पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया।

अंत में, सुलोचना ने राम से उस दिन युद्ध बंद रखने की प्रार्थना की, क्योंकि वह दिन उसके पति के अंतिम संस्कार का था और वह भी उनके साथ जाने वाली थी। राम ने स्वीकार कर लिया। लंका में समुद्रतट पर एक चंदन की चिता तैयार की गई। सुलोचना ने अपने पति के सिर को गोद में लिया और चिता पर बैठकर अग्नि में कूद गई और सती हो गईं।

कहानी से शिक्षा

इस कथा से निम्नलिखित शिक्षाएं मिलती हैं:

  1. पतिव्रता की महिमा: कथा में सुलोचना की अगाध पतिव्रता और सतित्व को बहुत महत्व दिया गया है। उसके पतिव्रत की शक्ति से मेघनाद का कटा हुआ सिर तक हँस पड़ा था, जिससे सभी चकित रह गए थे। यह पतिव्रता और पति के प्रति समर्पण की महिमा को दर्शाता है।
  2. त्याग और बलिदान की भावना: सुलोचना ने अपने पति के साथ सती होने का निर्णय लिया था। उसने अपना जीवन अपने पति के लिए न्योछावर कर दिया, जो पतिव्रता के प्रति समर्पण और बलिदान की भावना को दर्शाता है।
  3. सत्य और निष्ठा: जब सुलोचना को संदेह हुआ कि उसके पास आई भुजा उसके पति की है या नहीं, तो उसने सत्य जानने का प्रयास किया। उसने उस भुजा से युद्ध का वृतांत लिखवाया। यह उसकी सत्य और निष्ठा को दर्शाता है।
  4. दया और करुणा: राम ने सुलोचना को सम्मान दिया और उसका दुःख समझा। उन्होंने उसे शांत किया और मेघनाद का सिर सौंप दिया। यह उनकी दया और करुणा भावना को दर्शाता है।
  5. साहस और विनम्रता: सुलोचना एक नारी होते हुए भी शत्रु शिविर में अकेली गई, जो उसके साहस को दर्शाता है। साथ ही, उसने राम से विनम्र भाव से अपना कार्य पूरा किया।
  6. आध्यात्मिकता: कथा में सुलोचना के पति को देवता के समान मानने की बात आई है, जो हिंदू धर्म में आध्यात्मिकता और भक्ति भाव को दर्शाती है।

इस तरह यह कथा नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा देती है।

छोटी कहानी इन हिंदी

परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही।।
ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे।।
बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही।।
तेहि अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना।।
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा।।
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा।।
सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अंक बैठावा।।
करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा।।
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा।।
बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए।।

छंद
ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले।।
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए।।

दोहा/सोरठा
मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ।
उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ।।49।।

कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता।।
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा।।
कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही।।
अस कहि कठिन बान संधाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने।।
सर समुह सो छाड़ै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा।।
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर।।
जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा।।
सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा।।

दोहा/सोरठा
दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर।।50।।

देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला।।
महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा।।
आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई।।
बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना।।
रघुपति निकट गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा।।
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे।।
देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना।।
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला।।

दोहा/सोरठा
जासु प्रबल माया बल सिव बिरंचि बड़ छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट।।51।।

नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा।।
नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची।।
बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा।।
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा।।
कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना एहि लेखें।।
कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने।।
एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया।।
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके।।

दोहा/सोरठा
आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ।।52।।

छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला।।
इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए।।
भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी।।
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी।।
मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं।।
मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू।।
असि रव पूरि रही नव खंडा। धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा।।
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा।।

दोहा/सोरठा
रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ।।53।।

घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंसुक के तरु जैसे।।
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा।।
एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती।।
क्रोधवंत तब भयउ अनंता। भंजेउ रथ सारथी तुरंता।।
नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा।।
रावन सुत निज मन अनुमाना। संकठ भयउ हरिहि मम प्राना।।
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेज पुंज लछिमन उर लागी।।
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें।।

दोहा/सोरठा
मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ।।54।।

सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू।।
सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही।।
यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई।।
संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी।।
ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर।।
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना।।
जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना।।
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता।।

दोहा/सोरठा
राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन।।55।।

राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजन सुत बल भाषी।।
उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावन कालनेमि गृह आवा।।
दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना।।
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पंथ को रोकन पारा।।
भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना।।
नील कंज तनु सुंदर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा।।
मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू।।
काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई।।

दोहा/सोरठा
सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार।।56।।

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