दुर्वासा ऋषि का श्री राम से मिलन

बच्चों की अच्छी अच्छी कहानियां

एक समय की बात है, जब दुर्वासा ऋषि अपने साठ हजार शिष्यों सहित श्री रामचंद्र जी के दर्शन करने के लिए अयोध्या की ओर प्रस्थान कर रहे थे। मार्ग में चलते हुए दुर्वासा जी ने मन ही मन सोचा, “मनुष्य के रूप में यह तो स्वयं विष्णु जी ही अवतरित हुए हैं; मैं यह जानता हूँ, परन्तु अब संसार को भी उनके अद्भुत पौरुष का परिचय कराना चाहिए।”

इस विचार के साथ वे अयोध्या पहुंचे और भगवान श्री राम के भवन के आठ चौकों को लांघकर सबसे पहले सीता जी के भवन में पहुंचे। दुर्वासा जी को अपने शिष्यों सहित सीता जी के द्वार पर उपस्थित देखकर पहरेदारों ने शीघ्रता से दौड़कर श्री रामचंद्र जी को सूचना दी।

श्री रामचंद्र जी ने तुरंत ही मुनि दुर्वासा का स्वागत किया और उन्हें प्रणाम करके आदरपूर्वक भवन के भीतर लिवा ले गए। सबको बैठने के लिए सुंदर आसन दिया गया। दुर्वासा जी ने मधुर वचनों में कहा, “आज मेरे एक हजार वर्ष का उपवास व्रत पूरा हुआ है। मेरे शिष्यों सहित मुझे भोजन कराइये और इसके लिए आपको केवल एक मुहूर्त का समय देता हूँ। ध्यान रहे कि मेरा यह भोजन जल, धेनु और अग्नि की सहायता से प्रस्तुत न किया जाये। साथ ही शिव पूजन के लिए ऐसे पुष्प मँगवा दो जो यहां अब तक किसी ने देखे न हों।”

श्री रामचंद्र जी ने मुस्कराते हुए कहा, “भगवान! मुझे आपकी यह सब आज्ञा स्वीकार है।” दुर्वासा जी ने प्रसन्न होकर कहा, “मैं सरयू में स्नान करके अभी लौटता हूँ, शीघ्रता करना।” रामचंद्र जी ने कहा, “अच्छा, आप जाइये, स्नान कर आइये।”

दुर्वासा जी स्नान करने चले गए। रामचंद्र जी चिंतित हो गए। लक्ष्मण, जानकी और अन्य सभी व्याकुल होकर भगवान श्री राम की ओर देखने लगे। तब रामचंद्र जी ने लक्ष्मण जी से एक पत्र लिखवाया। पत्र को अपने बाण में बांधकर धनुष पर चढ़ाया और छोड़ दिया। बाण वायु वेग से उड़कर अमरावती में इन्द्र की सभा में जाकर गिरा।

इन्द्र ने उस बाण को देखकर पत्र को खोला और पढ़ा। पत्र में लिखा था, “इन्द्र! स्वर्ग में सुखी रहो। आज दुर्वासा मुनि अपने साठ हजार शिष्यों के साथ मेरे यहाँ आए हैं और विशेष भोजन और पुष्पों की मांग की है। मुझे शीघ्र ही कल्पवृक्ष और पारिजात भेज दो।”

इन्द्र देव ने तत्क्षण कल्पवृक्ष और पारिजात को लेकर देवताओं सहित अयोध्या के लिए प्रस्थान किया। लक्ष्मण जी ने इन्द्र का स्वागत किया और इन्द्र ने श्री रामचंद्र जी को पारिजात और कल्पवृक्ष अर्पण किया।

उधर सरयू तट से दुर्वासा ऋषि ने अपने एक शिष्य को राम के पास भेजा कि वह जाकर देखे कि राम ने उनके लिए भोजन की तैयारी की है या नहीं। शिष्य राम के भवन में आया और देवताओं की मंडली में राम को कल्पवृक्ष और पारिजात से युक्त देखकर तुरंत दुर्वासा ऋषि के पास लौटकर सारी बातें बताईं।

दुर्वासा जी को आश्चर्य हुआ और वे स्नान कर शिष्यों सहित श्री रामचंद्र जी के सुंदर भवन में आए। राम ने उन्हें और उनके शिष्यों को बड़े आदर से प्रणाम किया और उत्तम आसन पर बैठाकर सीता और लक्ष्मण के साथ उनकी पूजा की।

श्री राम ने पारिजात के पुष्प दुर्वासा जी के समक्ष प्रस्तुत किए। दुर्वासा जी ने उन पुष्पों को देखकर आश्चर्य किया और मौन भाव से उन्हें ग्रहण कर शिव जी की पूजा की।

फिर श्री राम ने लक्ष्मण और सीता को भोजन परोसने की आज्ञा दी। सीता ने कल्पवृक्ष और पारिजात की पूजा कर अनेक पात्रों को उनके नीचे रख दिया और प्रार्थना की, “हे क्षीरसागर से उत्पन्न होने वाले कल्पवृक्ष! आज शिष्यों सहित आए दुर्वासा को संतुष्ट कर दो।”

कल्पवृक्ष ने तुरंत ही करोड़ों पात्रों को विविध प्रकार की खाद्य सामग्रियों से भर दिया। सीता ने उन सामग्रियों को सुवर्ण पात्रों में रखकर दुर्वासा जी के समक्ष परोस दिया। दुर्वासा जी ने अपने शिष्यों सहित वह भोजन किया और फिर ताम्बूल और दक्षिणा लेकर संतुष्ट हुए।

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श्रीकृष्ण की माया: सुदामा की कहानी

एक दिन श्रीकृष्ण ने कहा, “सुदामा, आओ, हम गोमती में स्नान करने चलें।” दोनों गोमती के किनारे गए, अपने कपड़े उतारे और नदी में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण स्नान करके किनारे लौट आए और अपने पीले वस्त्र पहनने लगे। सुदामा ने एक और डुबकी लगाई, तभी श्रीकृष्ण ने उन्हें अपनी माया दिखाई।

सुदामा को लगा कि नदी में बाढ़ आ गई है। वह बहता जा रहा था, किसी तरह किनारे पर रुका। गंगा घाट पर चढ़कर वह चलने लगा। चलते-चलते वह एक गाँव के पास पहुँचा, जहाँ एक मादा हाथी ने उसे फूलों की माला पहनाई। बहुत से लोग इकट्ठा हो गए और बोले, “हमारे देश के राजा का निधन हो गया है। यहाँ की परंपरा है कि राजा की मृत्यु के बाद जिस किसी को मादा हाथी माला पहनाएगी, वही हमारा नया राजा बनेगा। मादा हाथी ने तुम्हें माला पहनाई है, इसलिए अब तुम हमारे राजा हो।”

सुदामा हैरान रह गया, लेकिन वह राजा बन गया और एक राजकुमारी से विवाह भी कर लिया। उनके दो बेटे भी हुए और उनका जीवन खुशी से बीतने लगा। एक दिन सुदामा की पत्नी बीमार हो गई और मर गई। पत्नी की मृत्यु के शोक में सुदामा रोने लगे। राज्य के लोग भी वहाँ पहुँचे और बोले, “राजा जी, मत रोइए। यह तो माया नगरी का नियम है। आपकी पत्नी की चिता में आपको भी प्रवेश करना होगा।”

लंका के शासक रावण की माँग

यह कहानी महार्षि कंबन द्वारा तमिल भाषा में लिखित “इरामा-अवतारम” से ली गई है, जो वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण में नहीं मिलती।

श्रीराम ने समुद्र पर पुल बनाने के बाद, महेश्वर-लिंग-विग्रह की स्थापना के लिए रावण को आचार्य के रूप में आमंत्रित करने के लिए जामवंत को भेजा। जामवंत ने रावण को यह संदेश दिया कि श्रीराम ने उन्हें आचार्य के रूप में नियुक्त करने का निर्णय लिया है। रावण ने इसे सम्मानपूर्वक स्वीकार किया।

रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बैठाकर श्रीराम के पास ले गया और खुद आचार्य के रूप में अनुष्ठान का संचालन किया। अनुष्ठान के दौरान, रावण ने श्रीराम से उनकी पत्नी के बिना अनुष्ठान पूरा नहीं होने की बात कही। तब श्रीराम ने सीता को अनुष्ठान में शामिल होने का आदेश दिया।

धन्ना जाट जी की कथा

एक बार की बात है, एक गाँव था जहाँ भागवत कथा का आयोजन किया गया था। एक पंडित कथा सुनाने आया था जो पूरे एक सप्ताह तक चली। अंतिम अनुष्ठान के बाद, जब पंडित दान लेकर घोड़े पर सवार होकर जाने को तैयार हुआ, तो धन्ना जाट नामक एक सीधे-सादे और गरीब किसान ने उसे रोक लिया।

धन्ना ने कहा, “हे पंडित जी! आपने कहा था कि जो भगवान की सेवा करता है, उसका बेड़ा पार हो जाता है। लेकिन मेरे पास भगवान की मूर्ति नहीं है और न ही मैं ठीक से पूजा करना जानता हूँ। कृपया मुझे भगवान की एक मूर्ति दे दीजिए।”

पंडित ने उत्तर दिया, “आप स्वयं ही एक मूर्ति ले आइए।”

धन्ना ने कहा, “लेकिन मैंने तो भगवान को कभी देखा ही नहीं, मैं उन्हें कैसे लाऊँगा?”

उन्होंने पिण्ड छुडाने को अपना भंग घोटने का सिलबट्टा उसे दिया और बोले- “ये ठाकुरजी हैं ! इनकी सेवा पूजा करना।’

“सच्ची भक्ति: सेवा और करुणा का मार्ग”

एक समय की बात है, एक शहर में एक धनवान सेठ रहता था। उसके पास बहुत दौलत थी और वह कई फैक्ट्रियों का मालिक था।

एक शाम, अचानक उसे बेचैनी की अनुभूति होने लगी। डॉक्टरों ने उसकी जांच की, लेकिन कोई बीमारी नहीं मिली। फिर भी उसकी बेचैनी बढ़ती गई। रात को नींद की गोलियां लेने के बावजूद भी वह नींद नहीं पा रहा था।

आखिरकार, आधी रात को वह अपने बगीचे में घूमने निकल गया। बाहर आने पर उसे थोड़ा सुकून मिला, तो वह सड़क पर चलने लगा। चलते-चलते वह बहुत दूर निकल आया और थककर एक चबूतरे पर बैठ गया।

तभी वहां एक कुत्ता आया और उसकी एक चप्पल ले गया। सेठ ने दूसरी चप्पल उठाकर उसका पीछा किया। कुत्ता एक झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाके में घुस गया। जब सेठ नजदीक पहुंचा, तो कुत्ते ने चप्पल छोड़ दी और भाग गया।

इसी बीच, सेठ ने किसी के रोने की आवाज सुनी। वह आवाज एक झोपड़ी से आ रही थी। अंदर झांककर उसने देखा कि एक गरीब औरत अपनी बीमार बच्ची के लिए रो रही है और भगवान से मदद मांग रही है।

शुरू में सेठ वहां से चला जाना चाहता था, लेकिन फिर उसने औरत की मदद करने का फैसला किया। जब उसने दरवाजा खटखटाया तो औरत डर गई। सेठ ने उसे आश्वस्त किया और उसकी समस्या

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