“सन्त की आश्चर्य-कहानी”

बच्चों की रात की कहानियां

किसी नगर में राजकन्या का विवाह था, मंगल के बाजे बज रहे थे। उसी नगर में एक सिद्ध महात्मा रहते थे। महात्मा बाजों की आवाज सुनकर दरबार में गये। राजा से यह मालूम होने पर कि राजकन्या का विवाह हैं, उन्होंने कन्या को देखना चाहा। राजा ने कन्या को बुलाया। राजकन्या ने आकर महात्मा के चरणों में प्रणाम किया।

महात्मा ने न मालूम किस अभिप्राय से उसको नखशिख देखकर राजा से कहा–’इस लड़की का हमसे विवाह कर दो।’

राजा तो सुनते ही सहम गया। राजा बुद्धिमान् था, महल में जाकर एक जोड़ी बहुमूल्य मोती लाया। मोती का आकार मुर्गी के अण्डे जितना था और उनसे शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा की-सी ज्योति छिटक रही थी।

राजा ने नम्रता से कहा–’भगवन् ! हमारे कुल की रीति है–जो इस तरह के १०८ मोतियों का हार कन्या को देता है, उसी से हम कन्या का विवाह करते हैं।’

महात्मा ने निर्विकार चित्त से, पर उत्साह से कहा–’हाँ, हाँ, तुम्हारी कुल की प्रथा तो पूरी होनी ही चाहिये। ये दोनों मोती के दाने मुझे दे दो, इसी नमूने के एक सौ आठ मोती मैं ला देता हूँ। परन्तु खबरदार ! तब तक लड़की को किसी दूसरी से ब्याह न देना।’

राजा ने सोचा था–’महात्मा मोती की बात सुनकर निराश हो लौट जायँगे।’ परन्तु यहाँ तो दूसरी ही बात हो गयी।

राजा जानता था–महात्मा ऊँचे दर्जे के सिद्ध पुरुष हैं, उनकी आज्ञा न मानने से अमंगल हो सकता है; अतएव राजा ने दोनों मोती उनको दे दिये और कहा–’भगवन् ! आगे लग्न नहीं है, आप जल्दी लौटियेगा।’

राजा ने सोचा–’ऐसे मोती कहीं मिलेंगे नहीं; महात्मा सच्चे पुरुष हैं, लौट ही आयेंगे। तब लड़की का विवाह निर्दिष्ट राजकुमार के साथ कर दिया जायगा।’ राजा ने विवाह स्थगित कर दिया। ।

महात्मा मोती के दाने झोली में डालकर चल दिये। तीन दिन हो गये। महात्मा समुद्र के किनारे बैठे कमण्डलु भर-भर समुद्र का जल बाहर उलीच रहे हैं। उन्हें खाना-पीना-सोना कुछ भी स्मरण नहीं है।

न थकावट है न विषाद है; न निराशा है न विराम है। एक लगन से कार्य चल रहा है। महात्मा की अमोघ क्रिया से प्रकृति में हलचल मची। अन्तर्जगत् में क्षोभ उत्पन्न हो गया। समुद्र देव ब्राह्मण का रूप धरकर बाहर आये।

ब्राह्मण ने पूछा–’भगवन् ! यह क्या कर रहे हैं ?’ समाधि से जगे हुए की भाँति उनकी ओर देखकर सहज सरलता से महात्मा बोले–’एक सौ आठ मोती के दाने चाहिये। समुद्र में पानी नहीं रहेगा, तब मोती मिल जायँगे।’

ब्राह्मण ने कहा–’समुद्र क्या इसी तरह से और इतना जल्दी बिना पानी का हो जायगा?’

महात्मा ने कहा–‘हाँ, हाँ, हो क्यों नहीं जायगा। पानी तो उलीच ही रहे हैं, दो दिन आगे-पीछे होगा। अपने को कौन-सी जल्दी पड़ी है।’

ब्राह्मण बोला–’अगर समुद्र आपको मोती दे दे तो ?’

महात्मा बोले–‘तो फिर क्या हमारा समुद्र से कोई वैर है जो हम उसे बिना पानी का बनायेंगे?’

ब्राह्मण रूपी समुद्र बोला–‘अच्छा, तो लीजिये।’ समुद्र की एक तरंग आयी और मोतियों का ढेर लग गया।

महात्मा ने झोली से दोनों मोती निकाले। उनसे ठीक मिला-मिलाकर १०८ मोती चुनकर झोली में डाल लिये और चलने के लिये उठ खड़े हुए!

ब्राह्मण-वेशधारी समुद्र ने कहा–’भगवन् ! कुछ मोती और ले जाइये न ?’

महात्मा बोले–’हमें संग्रह थोड़े ही करने हैं। जरूरत थीं, उतने ले लिये। अब हम व्यर्थ बोझ क्यों ढोयें।’

महात्मा ने आकर राजा को बुलाया और पहले के दो दाने समेत १०८ मुर्गी के अण्डे जैसे पूनम के चाँद-से चमकते मोती के दाने राजा के सामने रख दिये। राजा आश्चर्यचकित हो गया। महात्मा के परम सिद्ध होने का उसे पूर्ण विश्वास हो गया।

राजा ने सोचा–’ऐसे विलक्षण शक्तिशाली पुरुष से लड़की का विवाह करने में लड़की को तो किसी दु:ख की सम्भावना है नहीं। परन्तु इनसे कुछ काम और क्यों न ले लिया जाय।’

राजा की एक दूसरे बड़े राजा से शत्रुता थी; वह राजा तो मर गया था, उसका छोटा कुमार था। उसने सोचा–’शत्रु का बीज भी अच्छा नहीं; महात्मा के हाथों यह कण्टक दूर हो जाय तो अच्छा।’

यह सोचकर राजा ने कहा–’भगवन् ! मोती तो बड़े अच्छे आप ले आये। एक काम और है, अमुक राज्य के राजकुमार का सिर आने पर लड़की का ब्याह होगा, ऐसा प्रण है। अतएव यदि हो सके तो आप इसके लिये चेष्टा करें।’

महात्मा ने कहा–’अरे, इसमें कौन बड़ी बात है, अभी जाता हूँ। महात्माजी उस राज्य में गये। राजमाता से मिले। राजमाता ने महात्मा का नाम सुन रखा था, इससे उसने बड़ी अच्छी आवभगत की।

महात्मा बोले–‘माई ! हम तो एक काम से आये हैं, तुम्हारे कुमार का हमें सिर चाहिये। हमने एक राजा से कहा था–’अपनी कन्या का ब्याह हमसे कर दो; उसने कहा है कि अमुक राजकुमार का सिर ला देंगे, तब विवाह होगा। अत: तुम हमें अपने लड़के का सिर दे दो।’

एकलौता लड़का था और वही राज्य का अधिकारी था। महात्मा के वचन सुनकर राजमाता के प्राण सूख गये। परन्तु हृदय में श्रद्धा थी; उसको विश्वास था कि सच्चे महात्मा से किसी का कोई अकल्याण नहीं हो सकता।

राजमाता बोली–भगवन् ! लड़के का सिर मैं कैसे उतारूँ। आप इस लडके को ही ले जाइये।’ ‘श्रीजी की चरण सेवा‘ की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज ’श्रीजी की चरण सेवा’ के साथ जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें।

महात्मा बोले–’यह और अच्छी बात है; उसने तो सिर ही माँगा था, हम तो पूरा ले जाते हैं। फिर सिर उतारकर हमें क्या करना है।’

राजमाता बोली–‘भगवन् ! इसे मैं आपके हाथों में सौंप रही हूँ।’

महात्मा बोले–‘हाँ, हाँ, भगवान् सब मंगल करेंगे।’

राजकुमार को लेकर महात्मा अपनी नगरी में लौटे और राजमहल में जाकर बोले–’लो, यह समूचा राजकुमार ! अब पहले विवाह करो; खबरदार ! जब तक विवाह न हो, लड़के को छूना मत।’

राजा ने आनन्द-मग्न होकर कहा–’ठीक है, भगवन् ! ऐसा ही होगा।’

महात्मा ने कहा–’तो बस, अब देर न करो!’

विवाहमण्डप रचा हुआ था ही। चौकी बिछायी गयी। महात्माजी दूल्हा बने। कन्या आयी। कन्या को महात्माजी ने एक बार नखशिख देखा। अकस्मात् महात्मा बोल उठे–’अरे ! उस राजकुमार को तो यहाँ बुलाओ!’

राजकुमार बुलाया गया। महात्मा ने उसे कन्या के बगल में खड़ा कर दिया। फिर दोनों को एक बार नखशिख देखकर बोले–’भई ! जोड़ी तो यही सुन्दर है। राजा ! बस, अभी इस राजकुमार से राजकुमारी का ब्याह कर दो। खबरदार, जो जरा भी चीं-चपट की।’

राजा नहीं न कर सका। राजकुमारी का विवाह शत्रु राजकुमार से हो गया। महात्मा के विचित्र आचरण का रहस्य अब राजा की समझ में आया, राजा का मन पलट गया। शत्रु मित्र हो गया! महात्मा अपनी कुटिया पर जाकर पूर्ववत् धूनी तापने लगे।

इस कहानी से यह मालूम हो गया कि सन्त पुरुष की क्रियाएँ किसी अज्ञात उद्देश्य से बड़ी विलक्षण हुआ करती हैं, उनकी क्रियाओं से उनकी स्थिति का पता लगाना बहुत ही कठिन होता है। ‘श्रीजी की चरण सेवा‘ की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज ’श्रीजी की चरण सेवा’ के साथ जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें।

तथापि आजकल के जमाने में जहाँ लोग नाना प्रकार से ठगे जा रहे हैं। विशेष सावधानी रखना ही उत्तम हैं। श्रद्धा और सेवा करके सत्संग करना चाहिये और जिन सन्त पुरुष के संग से अपने में दैवी सम्पदा की वृद्धि, भगवान् की ओर चित्तवृत्तियों का प्रवाह, शान्ति और आनन्द की वृद्धि प्रतीत हो, उन्हीं को सन्त मानकर उनसे विशेष लाभ उठाना चाहिये।

अपनी बुद्धि जिनको सन्त स्वीकार न करे, उनकी निन्दा तो नहीं करनी चाहिये; परन्तु अपना उनसे कोई गुरु-शिष्य का सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये। निन्दा तो इसलिये नहीं कि प्रथम तो किसी की भी निन्दा करना ही बहुत बुरा है; दूसरे, हम सन्त का बाहरी आचरण से निर्णय भी नहीं कर सकते।

गुरु-शिष्य का सम्बन्ध इसलिये नहीं बनाना चाहिये क्योंकि श्रद्धारहित और दोषबुद्धि युक्त सम्बन्ध से कोई लाभ नहीं होता।

बच्चों की रात की कहानियां

एक राजा ने प्रसन्न मन से अपने मंत्री से उसकी सबसे बड़ी इच्छा के बारे में पूछा। मंत्री ने शरमाते हुए राज्य का एक छोटा सा हिस्सा देने की इच्छा जताई। राजा ने मंत्री को आश्चर्यचकित करते हुए आधा राज्य देने की पेशकश की, लेकिन साथ ही यह भी घोषणा की कि अगर मंत्री तीस दिनों में तीन सवालों के जवाब नहीं दे पाया तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाएगा। सवाल थे:

मानव जीवन का सबसे बड़ा सच क्या है?
मानव जीवन का सबसे बड़ा धोखा क्या है?
मानव जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है?

मंत्री ने हर जगह जवाब ढूँढ़ा लेकिन कोई भी जवाब उसे संतुष्ट करने वाला नहीं मिला। आखिरी दिन उसकी मुलाक़ात एक भूतपूर्व मंत्री से हुई जो एक गरीब आदमी की तरह रह रहा था। इस आदमी ने जवाब दिया:

श्रीकृष्ण की माया: सुदामा की कहानी

एक दिन श्रीकृष्ण ने कहा, “सुदामा, आओ, हम गोमती में स्नान करने चलें।” दोनों गोमती के किनारे गए, अपने कपड़े उतारे और नदी में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण स्नान करके किनारे लौट आए और अपने पीले वस्त्र पहनने लगे। सुदामा ने एक और डुबकी लगाई, तभी श्रीकृष्ण ने उन्हें अपनी माया दिखाई।

सुदामा को लगा कि नदी में बाढ़ आ गई है। वह बहता जा रहा था, किसी तरह किनारे पर रुका। गंगा घाट पर चढ़कर वह चलने लगा। चलते-चलते वह एक गाँव के पास पहुँचा, जहाँ एक मादा हाथी ने उसे फूलों की माला पहनाई। बहुत से लोग इकट्ठा हो गए और बोले, “हमारे देश के राजा का निधन हो गया है। यहाँ की परंपरा है कि राजा की मृत्यु के बाद जिस किसी को मादा हाथी माला पहनाएगी, वही हमारा नया राजा बनेगा। मादा हाथी ने तुम्हें माला पहनाई है, इसलिए अब तुम हमारे राजा हो।”

सुदामा हैरान रह गया, लेकिन वह राजा बन गया और एक राजकुमारी से विवाह भी कर लिया। उनके दो बेटे भी हुए और उनका जीवन खुशी से बीतने लगा। एक दिन सुदामा की पत्नी बीमार हो गई और मर गई। पत्नी की मृत्यु के शोक में सुदामा रोने लगे। राज्य के लोग भी वहाँ पहुँचे और बोले, “राजा जी, मत रोइए। यह तो माया नगरी का नियम है। आपकी पत्नी की चिता में आपको भी प्रवेश करना होगा।”

लंका के शासक रावण की माँग

यह कहानी महार्षि कंबन द्वारा तमिल भाषा में लिखित “इरामा-अवतारम” से ली गई है, जो वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण में नहीं मिलती।

श्रीराम ने समुद्र पर पुल बनाने के बाद, महेश्वर-लिंग-विग्रह की स्थापना के लिए रावण को आचार्य के रूप में आमंत्रित करने के लिए जामवंत को भेजा। जामवंत ने रावण को यह संदेश दिया कि श्रीराम ने उन्हें आचार्य के रूप में नियुक्त करने का निर्णय लिया है। रावण ने इसे सम्मानपूर्वक स्वीकार किया।

रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बैठाकर श्रीराम के पास ले गया और खुद आचार्य के रूप में अनुष्ठान का संचालन किया। अनुष्ठान के दौरान, रावण ने श्रीराम से उनकी पत्नी के बिना अनुष्ठान पूरा नहीं होने की बात कही। तब श्रीराम ने सीता को अनुष्ठान में शामिल होने का आदेश दिया।

धन्ना जाट जी की कथा

एक बार की बात है, एक गाँव था जहाँ भागवत कथा का आयोजन किया गया था। एक पंडित कथा सुनाने आया था जो पूरे एक सप्ताह तक चली। अंतिम अनुष्ठान के बाद, जब पंडित दान लेकर घोड़े पर सवार होकर जाने को तैयार हुआ, तो धन्ना जाट नामक एक सीधे-सादे और गरीब किसान ने उसे रोक लिया।

धन्ना ने कहा, “हे पंडित जी! आपने कहा था कि जो भगवान की सेवा करता है, उसका बेड़ा पार हो जाता है। लेकिन मेरे पास भगवान की मूर्ति नहीं है और न ही मैं ठीक से पूजा करना जानता हूँ। कृपया मुझे भगवान की एक मूर्ति दे दीजिए।”

पंडित ने उत्तर दिया, “आप स्वयं ही एक मूर्ति ले आइए।”

धन्ना ने कहा, “लेकिन मैंने तो भगवान को कभी देखा ही नहीं, मैं उन्हें कैसे लाऊँगा?”

उन्होंने पिण्ड छुडाने को अपना भंग घोटने का सिलबट्टा उसे दिया और बोले- “ये ठाकुरजी हैं ! इनकी सेवा पूजा करना।’

“सच्ची भक्ति: सेवा और करुणा का मार्ग”

एक समय की बात है, एक शहर में एक धनवान सेठ रहता था। उसके पास बहुत दौलत थी और वह कई फैक्ट्रियों का मालिक था।

एक शाम, अचानक उसे बेचैनी की अनुभूति होने लगी। डॉक्टरों ने उसकी जांच की, लेकिन कोई बीमारी नहीं मिली। फिर भी उसकी बेचैनी बढ़ती गई। रात को नींद की गोलियां लेने के बावजूद भी वह नींद नहीं पा रहा था।

आखिरकार, आधी रात को वह अपने बगीचे में घूमने निकल गया। बाहर आने पर उसे थोड़ा सुकून मिला, तो वह सड़क पर चलने लगा। चलते-चलते वह बहुत दूर निकल आया और थककर एक चबूतरे पर बैठ गया।

तभी वहां एक कुत्ता आया और उसकी एक चप्पल ले गया। सेठ ने दूसरी चप्पल उठाकर उसका पीछा किया। कुत्ता एक झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाके में घुस गया। जब सेठ नजदीक पहुंचा, तो कुत्ते ने चप्पल छोड़ दी और भाग गया।

इसी बीच, सेठ ने किसी के रोने की आवाज सुनी। वह आवाज एक झोपड़ी से आ रही थी। अंदर झांककर उसने देखा कि एक गरीब औरत अपनी बीमार बच्ची के लिए रो रही है और भगवान से मदद मांग रही है।

शुरू में सेठ वहां से चला जाना चाहता था, लेकिन फिर उसने औरत की मदद करने का फैसला किया। जब उसने दरवाजा खटखटाया तो औरत डर गई। सेठ ने उसे आश्वस्त किया और उसकी समस्या जानी।

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