जरा चल के वृंदावन देखो

radha krishna song lyrics जरा चल के वृंदावन देखो

जरा चल के वृंदावन देखो

श्याम बंसी बजाते मिलेंगे

झूला झूलती मिलेंगी राधा रानी

और मोहन झूलाते मिलेंगे

वहां बांके बिहारी की झांकी

बड़ी अनुपम अनोखी है

बाकी वहां रहती है ग्वालो की टोलियां

वह तो माखन चुराते मिलेंगे

यहां बहती है जमुना की धारा

पाप कटेगी जैसे हो आरा

वहां रहती है संतों की टोलियां

वह तो हरी गुण गाते

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वहां रहती है मीरा दीवानी

वह तो मोहन के मन की है रानी

बोली राणा जी घर अपने जाओ

मेरे मोहन कभी तो मिलेंगे

radha krishna song lyrics जरा चल के वृंदावन देखो

गोवर्धन-धारण

भगवान् श्रीकृष्ण की अद्भुत लीलाओं को देखकर समस्त गोपों को यह विश्वास तो हो ही गया था कि ये कोई साधारण बालक नहीं हैं। अब उनकी प्रत्येक बातों का वे सम्मान करने लगे थे।

देवराज इन्द्र के पूजन की परम्परा वर्षों से व्रजमण्डल में चली आ रही थी। इस वर्ष भी इन्द्रपूजन की तैयारियाँ होने लगीं। प्रभु द्वारा जिज्ञासा प्रकट करने पर नन्द बाबा ने अपनी ओर से उन्हें इस पारम्परिक पूजन का महत्व बताने का प्रयास किया।

श्रीकृष्ण ने प्रस्ताव रखा-‘गोवर्धन पर्वत की हरी-हरी घासों को खाकर हमारी गौएँ तृप्त होती हैं, उन गौओं से प्राप्त दूध-दही-माखन आदि से हमारा पोषण होता है। इसलिये हम सबके असली देवता तो पर्वतराज गोवर्धन ही हैं। पूजन भी हम सबको इन्हीं का करना चाहिये।’

प्रभु के प्रस्ताव का सबने समर्थन किया। देवराज इन्द्र के लिये जुटायी गयी पूजन-सामग्रियाँ गिरिवर गोवर्धन को अर्पित की जाने लगीं। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने ही गोवर्धन का साकार रूप धारण कर नैवेद्य-भोग लगाया, किंतु यह सब देखकर देवराज इन्द्र व्रजमण्डल को ही जलमग्न करने का आदेश दे दिया।

फिर क्या था! मुसलाधार वर्षा प्रारम्भ हो गयी। स्वयं भी ऐरावत पर सवार होकर देवराज इन्द्र वृन्दावन-निवासियों पर वज्राघात करने लगे। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी।

इन्द्र की यह धृष्टता देख देव देव श्रीकृष्ण खेल-ही-खेल में गोवर्धन पर्वत को उखाड़ लिया और समस्त गोप गाय-बछड़ों तथा सामान सहित उस पर्वत के नीचे संरक्षित हो गये।

सात दिनों तक प्रलयकारी वृष्टि होती रही, किंतु व्रजमण्डल का बाल भी बाँका न हुआ। इन्द्र का गर्व दूर हो गया। प्रभु के चरणों में गिरकर उन्होंने क्षमा-याचना की। ‘ कामधेनु के दूध से श्रीकृष्ण का अभिषेक कर देवराज ने उन्हें ‘गोविन्द’ की उपाधि दी और अपने लोक चले गये।

मथुरा-गमन

भक्तजनों को सब प्रकार से आनन्दित करना भगवान् के अवतार का प्रमुख उद्देश्य है। वृन्दावन में रहकर भगवान् श्रीकृष्ण इसी उद्देश्य को चरितार्थ कर रहे थे। उनकी मुरली जैसे ही बजती, जड़-चेतन सभी उसकी मधुर ध्वनि में तन्मय हो जाया करते थे। गोपियाँ तो देह-गेह की भी सुध भुला बैठी थीं, भगवान् के प्रति पे्रम का क्या कहना! वृन्दावन में अहर्निश प्रभु की रासलीला चलने लगी थी।

उधर एक-एक करके अपने सभी सेवकों की मृत्यु का समाचार सुनकर आततायी कंस बौखला उठा था। भगवान् की प्रेरणा से देवर्षि नारद ने उसे बता दिया कि नन्द-यशोदा के घर में पल रहे श्रीकृष्ण ही देवकी के आठवें पुत्र हैं।

अब तो कंस की उद्विग्नता चरम सीमा पर पहुँच गयी। उसने वसुदेव-देवकी को पुनः कारागार में डाल दिया और धनुष-यज्ञ के बहाने अक्रूर जी को वृन्दावन इस उद्देश्य से भेजा कि वे जाकर समूचे व्रजवासियों सहित बलराम -श्रीकृष्ण को मथुरा ले आयें। किसी भी तरह श्रीकृष्ण को मार डालना कंस का कलुषित उद्देश्य था।

अक्रूर जी भगवान् श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। प्रभु-दर्शन की इच्छा से वे वृन्दावन पहुँचे। बाबा नन्द से उन्होंने कंस की राजाज्ञा सुनायी। श्रीकृष्ण से भी उन्होंने सब कुछ बता दिया।‘दुष्ट कंस के संहार में अब विलम्ब नहीं करना चाहिये’- ऐसा विचार कर भगवान् ने मथुरा चलने का निश्चय किया।

विरह की सम्भावना से मैया यशोदा और जगज्जननी राधा सहित सारी गोपियाँ व्याकुल हो गयीं। फिर से मिलने का मधुर आश्वासन देकर भइया बलराम के साथ श्रीकृष्ण अक्रूर जी के रथ पर सवार हो गये। नन्दबाबा तथा सारे गोप अपने-अपने साधनों से मथुरा की ओर चल पडे़।

यमुना के जल में स्नान करते समय अक्रूर जी को भगवान् ने अपने दिव्य चतुर्भुजरूप का दर्शन कराया। अक्रूर जी कृतार्थ हो गये। शाम होते-होते प्रभु समाज-सहित मथुरा पहुँच गये। नगर के बाहर एक रमणीय उपवन देखकर डेरा डाला गया।

कंस-वध

अगले दिन भगवान् श्रीकृष्ण भइया बलराम और सखाओं सहित नगर-भ्रमण के लिये निकले। कंस का एक धोबी रास्ते में मिला। धुले कपड़े लेकर वह राज दरबार की ओर जा रहा था। श्रीकृष्ण ने उससे अपने लिये तथा अन्य ग्वाल-बालों के लिये कपड़ों की माँग की।

धोबी दुष्ट तथा घमंडी था। उसने इनकार तो किया ही, भगवान् को कुछ अपशब्द भी कहा। हथेली के एक ही प्रहार से प्रभु ने उसका काम तमाम कर दिया। उसके साथ के अन्य धोबी अपने-अपने कपड़ों का गट्ठर छोड़ भाग खड़े हुए।

सखाओं सहित श्रीकृष्ण ने इच्छानुसार वस्त्रों को धारण कर लिया। एक भक्त दरजी ने काट-छाँट करके कपड़ों को बालकों के अनुरूप बना दिया। रास्ते में ही एक भक्त माली के सुमनोपहार तथा दासी कुब्जा के अंगराग को प्रभु ने स्वीकार किया। कुब्जा का कुब्जत्व दूर कर प्रभु ने उसे सुन्दर युवती बना दिया।

कंस के रंगमण्डप में एक विशाल धनुष रखा था। रक्षकों के देखते-देखते वहाँ पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण ने वह धनुष तोड़ डाला। यह सुनकर कंस बौखला उठा। । दूसरे दिन श्रीकृष्ण को मार डालने के लिये उसने दंगल का आयोजन किया। भइया बलराम के साथ प्रभु वहाँ पहुँचे। प्रवेश-द्वार पर ही कंस ने कुवलयापीड नामक हाथी को खड़ा कराया था। महावत सहित कुवलयापीड को दोनों भाइयों ने मार डाला।

अखाड़े में पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण चाणूर से भिड़े और बलराम जी मुष्टिक से। पलक झपकते ही चाणूर और मुष्टिक की इहलीला समाप्त हो गयी। अब तो कंस पागलों के समान चीख पड़ा-‘अरे, मारो इन दोनों लड़कों को, नन्द को कैद कर लो, वसुदेव को भी मार डालो।’ किंतु वहाँ सुनता कौन था?

भगवान् श्रीकृष्ण उछलकर कंस के सिंहासन पर चढ़ गये और उसका केश पकड़कर उन्होंने उसे धरती पर पटक दिया, स्वयं भी वे उसके ऊपर कूद गये। कंस का अन्त हो गया। वसुदेव-देवकी और उग्रसेन को प्रभु ने कारागार से मुक्त कर दिया।

संदिपनि मुनि के आश्रम में

भगवान् श्री कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन को फिर से मथुरा का राजा बनाया। अत्याचारी कंस के शासन से मुक्त होकर मथुरा चैन की साँस लेने लगी। नन्द बाबा तथा अन्य गोपों को समझा-बुझाकर श्रीकृष्ण ने वापस वृन्दावन भेज दिया। माता रोहिणी भी अब मथुरा आ गयीं। वसुदेव जी ने दोनों भाइयों का विधिवत् उपनयन-संस्कार कराया और शिक्षा प्राप्त करने के लिये गुरुदेव सांदीपनि मुनि के यहाँ भेज दिया।

वेद-पुराण आदि सभी जिनके सहज उच्छ्वास ही हैं, भला उन्हें कौन पढ़ा सकता है? किंतु जब भगवान् मनुष्य बन गये हों तब मनुष्यों के संस्कार भी उनको अपनाने ही होंगे। गुरुदेव के आश्रय में दोनों भाई शिक्षा प्राप्त करने लगे। ब्रह्मचारियों-सा वेश, उनके जैसा ही तपस्वी-जीवन और गुरुजी की आज्ञा का पालन करने में निरत रहना यही दोनों भाइयों की दिनचर्या बन गयी थी। यहीं श्रीकृष्ण की मित्रता सुदामा से हुई।

शीघ्र ही प्रभु की शिक्षा पूरी हो गयी। गुरु सांदीपनि का पुत्र कुछ दिनों पहले जल में डूब गया था। गुरुदेव और गुरुपत्नी दोनों प्रभु श्रीकृष्ण के अपरिमित प्रभाव को जानते थे। गुरुदक्षिणा के रूप में उन्होंने श्रीकृष्ण से अपने उस डूबे हुए पुत्र को हो ही माँगा।

बडे़ भाई बलराम-सहित श्रीकृष्ण यमलोक पहुँचे। वहाँ से गुरुपुत्र को लाकर उन्होंने गुरुजी की सेवा में समर्पित कर दिया। गुरुपत्नी एवं गुरुदेव सांदीपनि परम प्रसन्न हुए और दोनों भाइयों को ढेर सारा आशीर्वाद देकर उन्होंने अपने आश्रम से विदा किया। श्रीकृष्ण-बलराम वापस मथुरा आ गये।

कंस का वध हो जाने पर उसकी दोनों पत्नियाँ अस्ति और प्राप्ति दुःखी होकर अपने पिता मगधराज जरासंध के पास चली गयीं। क्रूर जरासंध अपने जामाता का बदला लेने के लिये आतुर हो गया। मथुरा पर चढ़ाई करने की तैयारी में वह जुट गया।

द्वारकाधीश-कृष्ण

तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर जरासंध ने मथुरा पर आक्रमण कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलराम और अपनी यादवी सेना लेकर मैदान में उतरे। जरासंध को भी पकड़ ही लिया था, किंतु दयालु भगवान् ने उसे छुड़ा दिया।

मगध लौटकर जरासंध ने पुनः सैन्य-संगठन करके मथुरा पर आक्रण किया, किंतु इस बार भी उसे मुँह की खानी पड़ी। इस प्रकार अठारह बार जरासंध ने मथुरा पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया और प्रत्येक बार उसे पराजित होना पड़ा।

यदुवंशियों को बार-बार संकट में पड़ता देख भगवान् श्रीकृष्ण ने देवशिल्पी विश्वकर्मा जी को एक नये नगर के निर्माण का आदेश दिया। समुद्र के बीचोबीच विश्वकर्मा जी ने द्वारका नामक उस अद्भुत नगर का निर्माण कर दिया। मथुरावासियों को सोते समय ही भगवान् ने द्वारका पहुँचा दिया।

इस बीच कालयवन नाम का एक म्लेच्छ शासक तीन करोड़ सैनिकों के साथ मथुरा को घेर चुका था। ‘ श्रीकृष्ण अकेले ही उसके सामने आ पहुँचे। प्रभु की लीलाएँ विचित्र हैं। जिनके डर से काल भी डर जाय, वे प्रभु कालयवन को देखकर भागने लगे। कालयवन पीछा करता रहा।

प्रभु श्रीकृष्ण भागते-भागते उस गुफा में घुस गये जिसमें राजा मुचुकुंद गहरी निद्रा में सो रहे थे। प्रभु उनको अपना पीताम्बर ओढ़ाकर स्वयं छिप गये। कालयवन ने उन्हें ही श्रीकृष्ण समझ उनको लात मारी। मुचुकुंद की निद्रा भंग हो गयी।

देवताओं के वर के प्रभाव से मुचुकुंद की दृष्टि पड़ते ही कालयवन जलकर भस्म हो गया। अपने दिव्य चतुर्भुज रूप का दर्शन भगवान् ने मुचुकुंद को कराया। प्रभु की स्तुति करके मुचुकुंद अपने लोक को चले गये।

भगवान श्रीकृष्ण अब द्वारकाधीश बन गये। द्वारका का वैभव इन्द्र की अमरावतीपुरी को भी लज्जित करने वाला था। सर्वत्र सुख-शान्ति का साम्राज्य था।

सुदामा का सत्कार

द्वारका में रहते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने अनेक लीलाएँ कीं। रुक्मिणी, सत्यभामा, मित्रविन्दा, कालिन्दी आदि प्रभु की आठ पटरानियाँ थीं। इसके अतिरिक्त भौमासुर के यहाँ कैद सोलह हजार युवातियों को मुक्त करके श्रीकृष्ण ने उनसे विवाह किया। बड़े भइया बलराम का विवाह रेवती से हुआ। इस बीच पौण्ड्रक, शिशुपाल, शाल्व, जरासंध, दन्तवक्त्र, विदूरथ-जैसे दुष्टों का भी उद्धार भगवान् श्रीकृष्ण ने किया। पारिजात-हरण की लीला भी प्रभु के द्वारकावास के समय हुई।

प्रभु-भक्त सुदामा एक गरीब ब्राह्मण थे। गुरुदेव सांदीपनि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करते समय इनकी मित्रता भगवान् श्रीकृष्ण से हुई थी।। शिक्षा पूरी करके सुदामा भी अपने घर चले गये थे। विवाह करके वे गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे थे। अपनी गरीबी से वे अत्यन्त खिन्न थे।

एक दिन पत्नी की प्रेरणा से भक्त सुदामा द्वारका आये। सेवकों द्वारा सुदामा जी के आगमन का समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण की खुशी का ठिकाना न रहा। दौड़कर वे आये। सुदामा जी को उन्होंने अँकवार में भर लिया तथा अपने सिंहासन पर बैठारक भगवान् स्वयं उनके चरण धुलने लगे। कुशल-क्षेम पूछकर भगवान् अपने मित्र की दीन-हीन दशा निहारने लगे। सुदामाजी की काँख में दबी पोटली की ओर प्रभु की दृष्टि गयी। वास्तव में सुदामा जी की

पत्नी ने प्रभु को भेंट प्रदान करने के लिये चार मुट्ठी चिउड़ा दिया था, जिसे संकोचवश वे छिपा रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण ने झपट कर वह प्रेमोपहार ग्रहण कर लिया। अनेक प्रकार से सुदामा जी का सत्कार करके प्रभु ने उन्हें विदा किया।

प्रभु के शरणागत हो जाने पर भला दुःख-दारिद्रय कैसे टिक सकते हैं? भक्त सुदामा वापस आकर अपनी झोंपड़ी ढूँढ़ने लगे। किन्तु वहाँ तो भव्य महल बन गया था। उनकी पत्नी महारानियों के-से ठाट-बाट में उनसे मिलीं। प्रभु की कृपा का यह चमत्कार देख सुदामा भाव विहोर हो गये।

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