मन में बसाकर तेरी मूर्ति

radha krishna bhajan lyrics मन में बसाकर तेरी मूर्ति

मन में बसाकर तेरी मूर्ति,

उतारू मैं गिरधर तेरी आरती ॥

करुणा करो कष्ट हरो ज्ञान दो भगवन,

भव में फसी नाव मेरी तार दो भगवन,

दर्द की दवा तुम्हरे पास है,

जिंदगी दया की है भीख मांगती,

मन में बसाकर तेरी मूर्ति,

उतारू में गिरधर तेरी आरती ॥

मांगु तुझसे क्या मै यही सोचु भगवन,

जिंदगी जा तेरे नाम करदी अर्पण,

सब कुछ तेरा कुछ नहीं मेरा,

चिंता है तुझको प्रभु संसार की,

मन में बसाकर तेरी मूर्ति,

उतारू में गिरधर तेरी आरती ॥

वेद तेरी महिमा गाये संत करे ध्यान,

नारद गुणग करे छेड़े वीणा तान,

भक्त तेरे द्वार करते है पुकार,

दास व्यास तेरी गाये आरती,

मन में बसाकर तेरी मूर्ति,

उतारू में गिरधर तेरी आरती

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द्रौपदी पर कृपा

द्रौपदी पाण्डवों की पत्नी और भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थीं। पाण्डवों के प्रति धृतराष्ट्र-पुत्र दुर्योधन सदैव द्वेष-भाव रखता था। उनकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ का वैभव कपटी दुर्योधन के मन में दाह उत्पन्न करने लगी। पाण्डवों को छल-बल से नीचा दिखाने के लिये दुर्योंधन ने हस्तिनापुर में जुए का आयोजन किया।

जुआ सर्वनाश की जड़ है। ज्येष्ठ पाण्डु-पुत्र युधिष्ठिर जुए में राज्य, भाइयों तथा पत्नी द्रौपदी तक को गँवा बैठे। दुष्ट दुर्योंधन ने मर्यादाओं को ताक पर रख दिया। उसने अपने भाई दुःशासन से द्रौपदी को वस्त्रहीन कर देने के लिये कहा। द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का उसका आदेश सुनकर हस्तिनापुर की सभा काँप उठी, किंतु सभी विवश थे। कुरुवंशी दुःशासन कुरुवंश की ही एक कुलवधू को नंगा करने का प्रयास करने लगा। अबला भक्त का अपमान! भला, कृपालु श्रीकृष्ण कैसे सहते!! वस्त्रावतार हुआ उनका। द्रौपदी की लाज बच गयी। फिर भी, जुए की शर्त के अनुरूप पतियों के साथ दौपदी को भी बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास का कष्ट भोगना पड़ा।

वन में भी जिस-किसी तहर पाण्डवों को संकट में डालना दुर्योधन का एकमात्र लक्ष्य था। उसी के अनुरोध पर एक दिन परम क्रोधी मुनि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों के साथ पाण्डवों के यहाँ पधारे। उन्होंने ऐसे समय भोजन की माँग की जब पाण्डवों सहित द्रौपती भी भोजन कर चुकी थीं। ‘श्रीजी की चरण सेवा’ की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे फेसबुक पेज ‘श्रीजी की चरण सेवा’ को फॉलो तथा लाईक करें और अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें। द्रौपदी के भोजन कर लेने के बाद पाण्डवों का वह अक्षय भोजन-पात्र भी और अधिक भोजन देने में अक्षम हो जाता था जिसे भगवान् सूर्य ने उन्हें दिया था। आखिर द्रौपदी की आर्त पुकार सुन भगवान् श्रीकृष्ण आये और उस भोजन-पात्र में चिपका हुआ साग का एक पत्ता उन्होंने खा लिया। दुर्वासा और उनके शिष्य नदी में स्नान करते हुए बिना भोजन किये ही डकारने लगे और भाग चले। इस प्रकार द्रौपदी और उनके पतियों के प्रत्येक कष्ट का निवारण प्रभु श्रीकृष्ण सदैव करते रहे।

कौरव सभा में विराट-रूप

पाण्डवों के वनवास और अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी। शर्त के अनुसार उन्हें अपना राज्य वापस मिलना चाहिये था, किंतु दुष्ट दुर्योधन कैसे मानता भला? उसने पाण्डवों को उनका अधिकार देने से साफ इनकार कर दिया। उसे समझाने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने दूत बनने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

पाण्डवों के दूत बनकर प्रभु हस्तिनापुर आये। दुर्योधन भी प्रभु के प्रभाव से अपरिचित न था। उसने श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने की मंशा से भाँति-भाँति के व्यंजन बनवाये; किंतु प्रभु श्रीकृष्ण व्यंजनों के भूखे तो हैं नहीं, वे तो केवल भाव के भूखे हैं। अतः उन्होंने दुर्योधन का अतिथि बनना अस्वीकार कर दिया। महात्मा विदुर यद्यपि दुर्योधन के ही महामन्त्री थे, तथापि प्रभु-चरणों में उनकी अविचल निष्ठा थी। उनकी अविचल निष्ठा थी। उनकी भक्ति के वशीभूत होकर भगवान् श्रीकृष्ण उनके अतिथि बने।

महात्मा विदुर की पत्नी भी भगवान् की अनन्य भक्त थीं। प्रभु जब उनके घर पहुँचे तब विदुरजी घर पर नहीं थे। ‘श्रीजी की चरण सेवा’ की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे फेसबुक पेज ‘श्रीजी की चरण सेवा’ को फॉलो तथा लाईक करें और अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें। अकेले विदुर-पत्नी मन-ही-मन भगवत्स्मरण कर रही थीं। सहसा भगवान् श्रीकृष्ण को अपने अतिथि के रूप में पाकर वे भाव-विह्नल हो उठीं। उन्हें अपने देह तक की सुध न रही। बड़े प्रेम से वे प्रभु को एक आसन पर बैठाकर उन्हें केले खिलाने लगीं। प्रेम-भक्ति की तन्मयता की पराकाष्ठा पर पहुँचकर वे श्रीकृष्ण को केले का छिलका तो खिला देती, और गूदे जमीन पर फेंक देतीं। प्रभु श्रीकृष्ण उन छिलकों को खाकर ही परम संतुष्ट हुए।

भगवान् श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को बहुत समझाया, किंतु वह मूर्ख बिना युद्ध किये सुई की नोक के बराबर भी भूमि पाण्डवों को देने के लिये तैयार नहीं हुआ। उसने तो भगवान् को कैद भी करना चाहा, किंतु सर्वव्यापी परमात्मा को कोई कैद कैसे कर सकता है भला! दुर्योधन के दुस्साहस के जवाब में श्रीकृष्ण ने उसे अपना भयंकर विराट् रूप दिखाया। भगवान् का विराट् रूप देखकर दुर्योधन की घिग्घी बँध गयी।

पार्थ-सारथि श्रीकृष्ण

भगवान् श्रीकृष्ण धरती से असुरों का बोझ शीघ्र हटा देना चाहते थे। उनकी इच्छा दुर्योधन की हठवादिता में प्रकट हुई। अभूतपूर्व युद्ध की भूमिका बन गयी। दोनों पक्ष अपनी-अपनी तैयारियों में जुट गये। पाण्डवों के साथ धर्म का सम्बल था और दुर्योधन के साथ उसका अभिमान। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल योद्धाओं को दोनों पक्ष आहूत करने लगा। दूर-दूर के राजाओं को युद्ध में भाग लेने के लिये निमन्त्रण भेजे जाने लगे।

भगवान् श्रीकृष्ण का सहयोग प्राप्त करने की इच्छा से अधर्मी दुर्योधन द्वारका पहुँचा। सर्वज्ञ प्रभु उस समय सो रहे थे। ‘श्रीजी की चरण सेवा’ की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे फेसबुक पेज ‘श्रीजी की चरण सेवा’ को फॉलो तथा लाईक करें और अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें। उधर पाण्डवों की ओर से भगवान् के चिर सखा श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन भी उसी समय सहायता माँगने पहुँच गये। श्रीकृष्ण को निद्रा में देख अभिमानी दुर्योधन जहाँ उनके सिरहाने एक आसन पर बैठ गया, वहीं भक्त अर्जुन प्रभु के पाँव की ओर हाथ बाँधे खड़े रहे। भगवान् ने निद्रा-भंग होने पर पहले अर्जुन को ही देखा और आगमन का उद्देश्य पूछा। तमककर दुर्योधन ने अर्जुन से पहले अपनी उपस्थिति की बात कही। भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों को सहायता का आश्वासन देते हुए कहा-‘एक ओर तो मैं रहूँगा; अकेला, निहत्था, युद्ध में शस्त्र उठाऊँगा तक नहीं; और दूसरी ओर मेरी विशाल सेना रहेगी। तुम दोनों को इनमें से जो रुचे, माँग लो।’

अर्जुन ने कहा-‘प्रभो! मुझे तो बस ‘आप’ ही चाहिये, आप भले ही युद्ध न करें।’ मूढ़ दुर्योधन विशाल सेना पाकर ही स्वयं को कृतकृत्य समझ रहा था। उसे क्या पता कि जहाँ धर्म है, वहाँ श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है! अर्जुन ने भगवान् को माँगकर जहाँ अपनी जीत उस दिन सुनिश्चित कर ली, वहीं दुर्योधन की हार भी उसी दिन पक्की हो गयी।

भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ का सारथि बनना स्वीकार किया। पाण्डवों और कौरवों की विशाल सेनाएँ युद्धभूमि में आमने-सामने डट गयीं। युद्ध के बाजों की ध्वनियों से आकाश गुंजायमान हो उठा।

अर्जुन को उपदेश

युद्धभूमि में पहुँकर अर्जुन ने भगवान् से अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्य ले चलने को कहा। वहाँ पहुँचकर अर्जुन ने प्रतिपक्ष में अपने ही सगे-सम्बन्धियों-गुरुजनों को देखा। वे मोहित होकर विषादग्रस्त हो गये। उनके मन में कायरतापूर्ण वैराग्य उत्पन्न हो गया।

अपने शिष्य की यह स्थिति देखकर भगवान् श्रीकृष्ण उपदेशक बन गये। उन्होंने कहा-‘अर्जुन! तुम जिनसे युद्ध न करने की बात कर रहे हो, वे सब पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। तुम्हें तो बस, निमित्त बनना है। युद्ध करना क्षत्रिय-धर्म है। जो व्यक्ति अपने धर्म का पालन नहीं करता, उसे कहीं भी, किसी भी समय शान्ति नहीं मिल सकती। तुम मनुष्य हो तो तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिन्ता करने की तुम्हें आवश्यकता नहीं। तुम मेरी शरण में आ जाओ और मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो।’ इसी प्रकार की तमाम ज्ञानपूर्ण बातों से प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मिथ्या मोह से दूर किया तथा उन्हें अपना विश्वरूप दिखाकर आश्वस्त किया और युद्ध के लिये उद्यत किया। अर्जुन को भगवान् द्वारा दिया गया वह उपदेश ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के रूप में आज भी प्रसिद्ध एवं प्रासंगिक है।

अन्ततः युद्ध प्रारम्भ हुआ। कौरव-पक्ष की ओर से पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, कुलगुरु कृपाचार्य, महान् धनुर्धर कर्ण आदि योद्धा अपनी वीरता का जौहर दिखाने लगे। ‘श्रीजी की चरण सेवा’ की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे फेसबुक पेज ‘श्रीजी की चरण सेवा’ को फॉलो तथा लाईक करें और अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें। इधर महाबली भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, धृष्टद्युम्न, घटोत्कच-जैसे पराक्रमी अर्जुन की अगुवाई और भगवान् श्रीकृष्ण के सरंक्षण में शत्रु-सेना को गाजर-मूली की तरह काटने लगे। अठारह दिनों तक यह महासंग्राम चला। असंख्य योद्धा काल के गाल में समा गये। पाण्डवों की विजय हुई। भागकर छिपे दुर्योधन को भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेरणा से महाबली भीम ने ललकार कर मार डाला। धृतराष्ट्र को अपनी भूल का पश्चात्ताप हुआ। भगवान् के शरणागत पाण्डवों को राज्य-सुख मिला।

परमधाम-प्रस्थान

प्रभु के अवतार का उद्देश्य धीरे-धीरे पूरा हो गया था। भगवान् श्रीकृष्ण आसुरी शक्तियों की सत्ता को धरती से निर्मूल कर धर्म की सत्ता प्रतिष्ठित कर चुके थे। अब उन्होंने लीला-संवरण का विचार किया, किंतु इससे पूर्व यदुवंशियों की अहंवादिता को भी वे मिटा देना चाहते थे। वास्तव में ‘श्रीकृष्ण हमारे राजा हैं’ ऐसा सोचकर यादवों को अभिमान हो गया था और वे स्वेच्छाचारी हो गये थे। इस मिथ्या अभिमान और स्वेच्छाचार को नष्ट करना प्रभु को आवश्यक प्रतीत हुआ।

द्वारकावासियों को श्रीकृष्ण ने प्रभास-क्षेत्र में जाने का आदेश दिया। प्रभु की इच्छा बलवती होती है। प्रभास-क्षेत्र में द्वारकावासी यदुवंशियों ने कुछ ब्राह्मणों का अपमान किया और ब्राह्मणों ने उन्हें आपस में ही लड़-मरने का शाप दे दिया। यह वस्तुतः भगवान् की इच्छा ही थी। कुछ ही दिनों के अनन्तर सारे यादव सचमुच ही आपस में लड़कर मर-मिटे। शेषावतार बलरामजी ने भी आत्मस्वरूप में स्थित होकर मनुष्य-शरीर छोड़ दिया।

लीला समेटने का संकल्प लेकर भगवान् श्रीकृष्ण एक वृक्ष के नीचे शान्तभाव से बैठ गये। जरा नामक एक बहेलिये ने दूर से उन्हें मृग समझ लिया। उसने बाण छोड़ा, जो आकर प्रभु के बायें पैर के अगूँठे में लगा। निकट आने पर जराने जब प्रभु को देखा तब उसे भारी पश्चात्ताप हुआ। प्रभु-चरणों में गिरकर वह बारम्बार क्षमा-याचना करने लगा। किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी इच्छा बताकर उसे शरीर स्वर्ग भेज दिया। तदनन्तर स्वयं भी योगधरणा का आश्रय लेकर प्रभु अपने दिव्य गोलोकधाम चले गये।

लीलापुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाएँ अनन्त हैं, उनका यथार्थ वर्णन कर पाने में हजार मुखवाले शेष भी जब असमर्थता का अनुभव करते हैं; फिर हम साधारण जनों की क्या गिनती! हम तो बस उन महानतम प्रभु के चरणों में नतमस्तक होते हैं।

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