काली कमली वाला मेरा यार है

krishna ji ke bhajan lyrics काली कमली वाला मेरा यार है

काली कमली वाला मेरा यार है,

मेरे मन का मोहन तू दिलदार है ।

तू मेरा यार है, मेरा दिलदार है ॥

मन मोहन मैं तेरा दीवाना, गाउँ बस अब यही तराना ।

श्याम सलोने तू मेरा रिजवार है, मेरे मन का मोहन तू दिलदार है ॥

तू मेरा मैं तेरा प्यारे, यह जीवन अब तेरे सहारे ।

तेरे हाथ इस जीवन की पतवार है, मेरे मन का मोहन तू दिलदार है ॥

पागल प्रीत की एक ही आशा, दर्दे दिल दर्शन का प्यासा ।

तेरे हर वादे पे मुझे ऐतबार है, मेरे मन का मोहन तू दिलदार है ॥

तुझको अपना मान लिया है, यह जीवन तेरे नाम किया है ।

krishna ji ke bhajan lyrics काली कमली वाला मेरा यार है

समुद्र मंथन की कथा

समुद्र मंथन अमर अमृत का उत्पादन करने के लिए निश्चित थी, लेकिन इसके साथ ही हलाहल नामक विष भी पैदा हुआ था। हलाहल विष में ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता थी और इसलिए केवल भगवान शिव इसे नष्ट कर सकते थे। भगवान शिव ने हलाहल नामक विष को अपने कंठ में रख लिया था। जहर इतना शक्तिशाली था कि भगवान शिव बहुत दर्द से पीड़ित थे और उनका गला बहुत नीला हो गया था। इस कारण से भगवान शिव ‘नीलकंठ’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपचार के लिए, चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जागते रहने की सलाह दी। इस प्रकार, भगवान भगवान शिव के चिंतन में एक सतर्कता रखी। शिव का आनंद लेने और जागने के लिए, देवताओं ने अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाने लगे। जैसे सुबह हुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। शिवरात्रि इस घटना का उत्सव है, जिससे शिव ने दुनिया को बचाया। तब से इस दिन, भक्त उपवास करते है

शिकारी की कथा

एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, ‘ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?’ उत्तर में शिवजी ने पार्वती को ‘शिवरात्रि’ के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- ‘एक बार चित्रभानु नामक एक शिकारी था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।’

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।’ शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे पारधी!’ मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्षपर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृगविनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।’ उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा। थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए’।

ॐ जय शिव ओंकारा भोले हर शिव ओंकारा
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा ।। ॐ हर हर हर महादेव….।।…
भगवान श्रीकृष्ण की छठी पूजा
भगवान कृष्ण के जन्म के छठे दिन उनकी छठी मनाई जाने की भी परंपरा है। इस साल कृष्ण जी की छठी का पूजन देशभर में जन्माष्टमी 26 अगस्त को मनाई गई है। ऐसे में छठी छह दिन बाद मनाई जाती है। इस कारण इस साल श्री कृष्ण की छठी 1 सितंबर को मनाई जाएगी।

आश्लेषा नक्षत्र👉 1 सितंबर को सूर्योदय से रात्रि 9 बजकर 49 मिनट तक रहेगा।

शिव योग👉 1 सितंबर को सायं 5 बजकर 50 मिनट से आरम्भ होगा।

अभिजित मुहूर्त 👉 दिन 11 बजकर 51 मिनट से 12 बजकर 42 मिनट तक रहेगा।

जानिये कृष्ण छठी पूजन की विधि और इसकी पौराणिक मान्यता के बारे में।

क्यों मनाते हैं छठी

श्री कृष्ण का जन्म कारगार में हुआ था और उन्हें वासुदेव ने रातों-रात की यशोदा के घर छोड़ दिया था. कंस को जब ये बात पता लगती है तो वे पूजना को श्री कृष्ण को मारने के लिए गोकुल यशोदा के पास भेजता है. और ये आदेश देता है कि गोकुल में जितने भी 6 दिन के बच्चे हैं उन्हें मार दिया जाए. पूतना के गोकुल पहुंचते ही यशोदा बालकृष्ण को छिपा देती हैं. श्री कृष्ण को पैदा हुए छह दिन हो गए थे, लेकिन उनकी छठी नहीं हो पाई थी. तब तक उनका नामकरण भी नहीं हो पाया था. इसके बाद यशोदा ने 364 दिन बाद सप्तमी को छठी पूजन किया और तभी से श्री कृष्ण की छठी मनाई जाने लगी. इतना ही नहीं, तभी से बच्चों की भी छठी की परंपरा शुरू हो गई।

कृष्ण छठी पूजन विधि

श्री कृष्ण छठी के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और साफ वस्त्र धारण करें। इसके बाद लड्डू गोपाल को पंचामृत से स्नान कराएं।गोपाल सहस्तनाम से स्नान कराऐ। इसके लिए दूध, घी, शहद, शक्कर और गंगाजल से बने पंचामृत का प्रयोग करें। इसके बाद शंख में गंगाजल भरकर लड्डू गोपाल को फिर से स्नान कराएं।

स्नान कराने के बाद भगवान को पीले रंग के वस्त्र पहनाएं और उनका श्रृंगार करें। इसके बाद लड्डू गोपाल को माखन-मिश्री भोग लगाएं।

भोग लगाने के बाद भगवान का नामकरण करें। माधव, लड्डू गोपाल, ठाकुर जी, कान्हा, कन्हैया, कृष्णा इनमें से जो भी नाम आपको अच्छा लगे वो चुन लें और भगवन को इसी नाम से पुकारें।

इसके बाद भगवान के चरणों में अपने घर की चाबी सौंप दें और भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना करें कि वे सदैव आपके परिवार पर अपनी कृपा बनाए रखें और सबका पालन-पोषण करें।

इसके बाद लड्डू गोपाल की कथा पढ़ें और इस दिन अपने घर में कढ़ी-चावल अवश्य बनाएं।

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