chhote bacchon ki kahaniyan

chhote bacchon ki kahaniyan डपोरशंख

एक छोटा-सा गाँव था। उस गाँवमें एक ब्राह्मण रहते थे । उनका नाम था शङ्करलालजी। लोग उन्हें शङ्कर पण्डित कहते थे। शङ्कर पण्डित बहुत निर्धन थे। उनका कच्चा घर छोटा-सा था। उसकी दीवालें पुरानी होकर फट गयी थीं और घरका खपरैलका छप्पर तो इतना फूटा टूटा था कि मत पूछो बात । बरसातमें जितना पानी छप्परसे बाहर जाता था, लगभग उतना ही घरमें भी गिरता था ।

शङ्कर पण्डित बेचारेको कभी किसीके यहाँ निमन्त्रणमें भले पूड़ी मिल जाय, घरमें तो भरपेट सूखी रोटी भी नहीं मिलती थी। इसलिए शंकर पण्डित बहुत दुबले थे। लोग उन्हें चिढ़ाते थे कि पण्डित आँधीमें घरसे मत निकला करो, नहीं वायु तुमको उड़ा ले जायगा ।’

शंकर पण्डितके घर वे थे और उनकी पत्नी थीं। दूसरा कोई नहीं था। भूखों मरनेके लिए दो मनुष्य ही क्या कम हैं कि और ढेरों ढूंढ़े जायें। पूजा-पाठ गाँवमें लोग कभी-कभी कराते हैं। पूजा-पाठ करानेपर जो कुछ मिल जाता, उसीसे शंकर पण्डितको काम चलाना पड़ता था। वे न भिक्षा माँगते थे, न दान लेते थे, न खेती करते थे। उनके घरमें कोई चूहा तक तो फटकता नहीं था। नित्य एकादशी करने कौन आवे ।

शंकर पण्डित शंकरजीके बड़े भक्त थे। वे शंकरजीकी प्रतिदिन पूजा किया करते थे। शंकरजीको एक दिन दया आ गयी । जब शंकर पण्डित मन्दिरमें पूजा करने गये तो उन्हें वहाँ एक छोटा-सा सुन्दर शङ्ख दिखायी पड़ा। मन्दिरमें उन्हें ऐसा लगा कि कोई कहे रहा है’ पण्डित ! यह शंख ले जाओ। दिनमें एक बार इसकी पूजा करके इससे जितना घन माँगोगे, उतना यह दे देगा ।’

शंकर पण्डित भगवानका प्रसाद समझकर शंख घर ले आये । उन्होंने शङ्खकी पूजा करके उससे पाँच रुपये मांगे। झट शङ्खसे चम-चम चमकते पाँच रुपये निकल पड़े। रुपये उन्होंने अपनी पत्नीको दे दिये ।

शंकर पण्डितकी स्त्री एक रुपया लेकर गाँवके बनियेके पास आटा-घी खरीदने गयी। बनियेको बड़ा आश्चर्य हुआ कि पण्डितकी स्त्रीको रुपया कहाँ मिला। उसने पूछा- ‘पण्डितानीजी ! आज पण्डितजी किसी धनी यजमानके यहाँ पूजा कराने गये थे क्या ?’

पण्डितानी सीधी थीं। उन्होंने कहा- ‘पण्डितजी अब कहीं पूजा-पाठ कराने नहीं जायेंगे। भगवानने कृपा कर दी है। अब तो पण्डितजी भगवानका ही भजन करेंगे ।’

बनियेने पण्डितानीसे सब बात पूछ ली। वह बड़ा लोभी था । उसके मनमें आया कि किसी प्रकार पण्डितसे वह शङ्ख ले लेना चाहिये। वह पण्डितके पास गया और बोला- महाराज ! आप तो तपस्वी हैं, भगवानके भक्त हैं, आपको शङ्खकी क्या आवश्यकता है। आपके भोजन वस्त्रका मैं प्रबन्ध कर देता है। शङ्ख आप मुझे दे दीजिये। सौ रुपये मैं शङ्खका मूल्य भी दूंगा।’
शंकर पण्डित बड़े उदार और सीधे थे। वे बोले- ‘यह शङ्ख तो भगवान शंकरका प्रसाद है। मैं इसका मूल्य नहीं लूंगा । लेकिन मेरे जैसे दरिद्रके घर जब आप माँगने आये हैं तो मैं आपको निराश नहीं करूंगा। आप शङ्ख ले जाइये ।’

बनिया शङ्ख लेकर घर आया। उसे शङ्खसे रुपया पानेकी छटपटी तो बहुत थी; किंतु शङ्ख दिनमें एक ही बार रुपया देता था । बनियेको वह दिन बिताना ही बड़ा कठिन ‘जान पड़ा। उसे एक डर भी था कि कहीं शङ्कर भगवान शंख लेनेसे क्रोध न करें। उसने सोचा था कि शंकर पण्डित जब पूजा करके लौट आयेंगे, तब उनसे मन्दिरमें क्या हुआ, यह पूछनेके बाद शंखसे रुपया माँगना ठीक होगा ।

दूसरे दिन सबेरे जब शंकर पण्डित मन्दिरमें गये तो वहाँ एक बड़ा भारी उजला शंख दिखायी पड़ा। मन्दिरमें-से फिर कोई बोला’ पण्डित ! आज इस शंखको भी ले जाओ । इसकी पूजा करके इससे कुछ माँगना। लेकिन कोई इसे छोटे शंखसे बदलने आवे तो बदल डालना। देखो, यह मेरी आज्ञा है कि फिर छोटा शंख किसीको मत देना ।

शंकर पण्डित वह बड़ा शंख लेकर घर आये। उनकी पत्नीने गोबरसे चौका लगाया। पाटेपर शंख रखकर पण्डितने उसकी पूजा की और हाथ जोड़कर बोले- ‘शंख देवता ! मुझे पाँच दीजिये ।’
शंखसे बड़े जोरसे हँसनेका शब्द आया और बोला- ‘अरे पण्डित ! पाँच रुपये क्या माँगते हो, तो कमसे कम माँगो ।’ फिर शंख पाँच सौ

पण्डित बोले- ‘महाराज ! मैं ब्राह्मण हैं। ब्राह्मणको लोभ नहीं करना चाहिये। आप मुझे पाँच रुपया दे दें ।’

शंख बोला- ‘ना, ना, मैं पाँच रुपये नहीं दूंगा। यह तो बहुत छोटी बात है। पाँच हजार माँगो, पाँच लाख माँगो।’

बनिया तो शंकर पण्डितके मन्दिरसे लौटते ही उनके घर आ गया था। पण्डितके हाथमें बड़ा भारी शंख देखकर वह छिपकर सब बातें देख-सुन रहा था। शंखकी बात सुनकर उससे रहा नहीं गया। उसने सोचा इतना धन देने वाला शंख ही लेना चाहिये ।’

बनिया झटपट आगे आया और शंकर पण्डितको प्रणाम करके बोला- ‘पण्डितजी ! आपको इतने रुपये तो चाहिये नहीं। यह शंख आप मुझे दे दें। कल वाला आपका छोटा शंख मैं लौटा देता है।’

शंकर पण्डित बोले- ‘हाँ भाई, मेरे लिए तो वह छोटा शंख ही बहुत है। लेकिन मैं फिर वह शंख तुम्हें नहीं दूंगा । मुझे भगवानने मना किया है।’

बनिया बोला- ‘मैं आपसे वह शंख फिर माँगूँगा भी नहीं।’

दौड़ा-दौड़ा बनिया घर गया और छोटा शंख ले आया। छोटे शंखको लेकर शंकर पण्डितने बड़ा शंख उसे दे दिया ।

बनिया घर आया । गायके गोचरसे भूमि लीपकर उसपर

पाट रखकर पाटेपर उसने रेशमका वस्त्र बिछाया। उस वस्त्रपर शंख रखकर उसने शंखपर चन्दन, फूल, अक्षत चढ़ाये । धूप दी, बत्ती जलायी, पेड़ेका भोग लगाकर कपूरकी आरती की ।

पूजा करके हाथ जोड़कर बनिया बोला- ‘शंख महाराज ! बडे दयालु हैं। मुझे कृपा करके पचास रुपये दे दीजिये।’
शंख हँसा और बोला- बस पचास रुपये! यह तो बहुत थोड़ा है। कुछ तो अधिक माँगो ।’

बनियेने उत्त्साहसे कहा- ‘महाराज ! मैंने तो सङ्कोचसे पचास रुपये माँगे थे। आप पाँच सौ रुपये दे दें तो बड़ी कृपा हो।’

शंखने कहा- ‘नहीं, अभी भी तुम सङ्कोच करते हो । पूरा धन माँगो ।’

बनिया तो आनन्दके मारे झूम उठा। वह कहने लगा- ‘आप जैसे दातासे मैं सङ्कोच क्यों करूं। मुझे आप पाँच हजार रुपये दे दें।’

शंखने फिर कहा- ‘अरे भाई ! कुछ तो अधिक माँग । यह क्या पचास, पाँच सौ, पाँच हजारकी रट लगा रखी है।’

अब बनिया बोला ‘जैसी आपकी इच्छा। आप पचास हजार दे दें।’

लेकिन इस बार शंखने उसे वीचमें ही रोका’ नहीं। नहीं। इतना थोड़ा नहीं। अधिक – खूव अधिक माँगो ।’

कुँझलाकर बनिया बोला ‘तो पाँच लाख, पचास लाख, पाँच करोड़, पचास करोड़, पाँच अरव, पचास अरब- आपके जो मनमें आवे, उतना ही दोजिये ।’

शंख इस बार वड़े जोरसे हँसा। वह बोला- ‘बस ! इतनी ही संख्या तुमने पढ़ी है? मुझे बड़ा अच्छा लगता है। तुम माँगते चलो। बड़ी-बड़ी संख्या बोलते चलो ।’

बनिया घबड़ाकर बोला- ‘लेकिन महाराज ! आप मुझे देंगे कितना ? आप अपने मनसे ही जितना देना चाहें, उतना दे दीजिये।’
शंख तो हँसते-हँसते लुढ़कने लगा । वह पाटेसे नीचे लुढ़क गया । इधर लुढ़का, उधर लुढ़का। कोनेमें लुढ़का, बरामदेमें लुढ़का । हँसते-हँसते, लुढ़कते- पुढ़कते वह बोला- ‘अरे भैया ! रुपया देने वाला तो छोटा शंख था। मेरा काम देना नहीं है। मैं तो बस देनेकी बात कहता हूँ। मेरा नाम है डपोरशंख – समझे ??

शंख तो लुढ़कतां-लुढ़कता बनियेके घरसे बाहर निकल गया । बनिया उसके पीछे दौड़ा; परन्तु अब वह शंख उसकी पकड़में आने वाला नहीं था। दौड़ते-दौड़ते बनिया थक गया । हांफने लगा। गिर पड़ा धमुसे। शंख कहाँ गया, यह उसे फिर पता नहीं लगा। शंकर पण्डितने तो उसे पहिले ही मना कर दिया था कि छोटा शंख नहीं देंगे ।

लालच करनेसे बनियेके हाथसे छोटा शंख भी चला गया ।

उस दिनसे जो लोग किसीको कुछ देनेकी बात कहके पीछे अस्वीकार कर देते हैं, उन्हें लोग डपोरशंख कहते हैं। तुम किसीको कोई सहायता देनेका वचन दो तो उसे अवश्य पूरा करो, नहीं तो तुम भो डपोरशंख कहे जाओगे ।

Leave a Reply