पवन उड़ा के ले गयी रे

माता रानी के भजन ढोलक वाले lyrics पवन उड़ा के ले गयी रे

भजन:-जय माता दी——

पवन उड़ा के ले गयी रे

मेरी माँ की चुनरिया

उड़के चुनरिया कैलाश पे पहुंची

गौराजी के मन को भा गयी रे

मेरी माँ की चुनरिया

पवन उड़ा के ले गयी रे मेरी माँ की चुनरिया

उड़के चुनरिया अयोध्या में पहुंची

माता सीता के मन को भा गयी रे

मेरी माँ की चुनरिया

पवन उड़ा के ले गयी रे मेरी माँ की चुनरिया

उड़के चुनरिया गोकुल में पहुंची

राधा के मन को भा गयी रे

मेरी माँ की चुनरिया

पवन उड़ा के ले गयी रे मेरी माँ की चुनरिया

उडके चुनरिया मेड़ता में पहुंची

मीरां के मन को भा गई रे

मेरी मां की चुनरिया

उड़के चुनरिया सत्संग में पहुची

भक्तो के मन को भा गयी रे

मेरी माँ की चुनरिया

पवन उड़ा के ले गयी रे मेरी माँ की चुनरिया

माता रानी के भजन ढोलक वाले lyrics पवन उड़ा के ले गयी रे

“वासुदेव: सर्वम”

गीता में भगवान् ने एक बड़ी विलक्षण बात बतायी है :-

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:।। (गीता ७/१९)

‘बहुत जन्मों के अन्त में अर्थात मनुष्य जन्म में ‘सब कुछ वासुदेव ही है’- ऐसे जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है, वह माहात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।’

ज्ञान किसी अभ्यास से पैदा नहीं होता, प्रत्युत जो वास्तव में है, उसको वैसा ही यथार्थ जान लेने का नाम ‘ज्ञान है’। ‘वासुदेव: सर्वम’ (सब कुछ परमात्मा ही हैं)- यह ज्ञान वास्तव में है ही ऐसा। यह कोई नया बनाया हुआ ज्ञान नहीं है, प्रत्युत स्वत:सिद्ध है। अत: भगवान् की वाणी से हमें इस बात का पता लग गया कि सब कुछ परमात्मा ही है, वह कितने आनन्द की बात है ! यह ऊँचा-से-ऊँचा ज्ञान है। इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ही नहीं। कोई भले ही शास्त्र पढ़ ले, वेद पढ़ ले, पुराण पढ़ ले, पर अन्त में यही बात रहेगी कि सब कुछ परमात्मा ही है ; क्योंकि वास्तव में बात है भी यही !

संसार में प्राय: कोई भी आदमी यह नहीं बताता कि मेरे पास इतना धन है, इतनी सम्पति है, इतनी विद्या है, इतना कला-कौशल है। परन्तु भगवान् ने ऊँचे-से-ऊँचे महात्मा के ह्रदय की गुप्त बात हमें सीधे शब्दों में बता दी कि सब कुछ परमात्मा ही है। इससे बढ़कर उनकी क्या कृपा होगी !

जितना चाहे संसार दीखता है, वह चाहे वृक्ष, पहाड़, पत्थर आदि के रूप में हो, चाहे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में हो, सबमे एक परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। परमात्मा की जगह ही यह संसार दीख रहा है। बाहर से जो संसार का रूप दीख रहा है, यह तो एक चोला है, जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, नाशवान है। परन्तु इसके भीतर स्तारूप से एक परमात्मतत्व है, जो अपरिवर्तनशील है, अविनाशी है। भूल यह होती है कि ऊपर के छोले की तरफ तो हमारी दृष्टि जाती है, पर उसके भीतर क्या है- इस तरफ हमारी दृष्टि जाती ही नहीं। इसलिये भगवान् कहते हैं-

‘ततो मां तत्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम’ (गीता १८/५५)

‘मनुष्य मेरे को तत्व से जानकर फिर तत्काल मेरे में प्रविष्ट हो जाता है।’ तत्व से जानना क्या है ? जैसे सूती कपड़ों में रुई की सत्ता है, मिट्टी के बर्तनों में मिट्टी की सत्ता है, ऐसे ही संसार में परमात्मा की सत्ता है- यह जानना ही तत्व से जानना अर्थात अनुभव करना है।

सोने के बने गहनों के अनेक प्रकार हैं ; कोई गले में पहनने का है, कोई हाथों में पहनने का है, कोई कानों में पहनने का है, कोई नाक में पहनने का है, आदि-आदि। उन गहनों की अनेक प्रकार की आकृतियाँ हैं, अनेक प्रकार के नाम हैं, अनेक प्रकार का उपयोग है, अनेक प्रकार का तौल है, अनेक प्रकार का मूल्य है। वे सब तो अनेक प्रकार के हैं, पर सोना अनेक प्रकार का नहीं है। जिसमे कोई प्रकार नहीं है, जो एक ही है, उसको जानना ही तत्व से जानना है। ऐसे ही संसार में मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, पहाड़, पत्थर, ईंट, रेत, छूना, मिट्टी आदि तो अनेक प्रकार के हैं, पर जो उनके भीतर रहने वाला है, उसका कोई प्रकार नहीं है। वह प्रकाररहित तत्व ही परमात्मा है।

जैसे गहनों में परिवर्तन होता है, पर सोने में परिवर्तन नहीं होता। गहने बदल जाते हैं, पर सोना वही रहता है। ऐसे ही संसार में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, पर इसमें जो अपरिवर्तनशील परमात्मतत्व है, वह ज्यों-का-ज्यों रहता है। भगवान् ने कहा है-

‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति’ (गीता १३/२७)

अर्थात नष्ट होने वालों में जो एक नष्ट न होने वाला तत्व है, उसको देखने वाला ही वास्तव में सही देखता है। जैसे, स्थूल-दृष्टि से देखा जाय तो कपडे, सब नष्ट हो जाते हैं, पर रुई रहती है। बर्तन सब नष्ट हो जाते हैं, पर मिट्टी रहती है। अस्त्र-शस्त्र सब नष्ट हो जाते हैं, पर लोहा रहता है। गहने सब नष्ट हो जाते हैं, पर सोना रहता है। ऐसे ही सब-का-सब संसार नष्ट होने वाला है, पर परमात्मतत्व नष्ट होने वाला नहीं है। उस कभी न बदलने वाले और कभी न नष्ट होने वाले तत्व की तरफ ही देखना है, उसको ही मानना है, उसको ही जानना है, उसको ही महत्व देना है।

जैसे हम कहते हैं कि ‘यह पदार्थ है’ तो इसमें पदार्थ तो परिवर्तनशील संसार है और ‘है’ अपरिवर्तनशील परमात्मतत्व है। संसार में देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदि तो अनेक है, पर उन सबमे ‘है’ (सता) रूप से विद्यमान परमात्मतत्व एक ही है। साधक की दृष्टि निरन्तर उस ‘है’ (परमात्मतत्व) पर ही रहनी चाहिये। वह ‘है’ एक ठोस चीज है और सबको नित्य-निरन्तर प्राप्त है। संसार किसी को कभी प्राप्त हुआ नहीं, प्राप्त है नहीं, प्राप्त होगा नहीं और प्राप्त हो सकता नहीं। हमसे भूल यह होती है कि हम उस शरीर-संसार को ‘है’ (प्राप्त) मान रहे हैं, जो वास्तव में है नहीं। शरीर पहले नहीं था- यह सबका अनुभव है, आगे यह शरीर नहीं रहेगा- यह भी सबका अनुभव है। इस अनुभव को ही महत्व देना है।

अगर भक्ति कि दृष्टि से देखें तो सब रूपों में परमात्मा ही हमारे सामने आते हैं। हमें भूख लगती है तो अन्नरूप से वे ही आते हैं, हमें प्यास लगती है तो जलरूप से वे ही आते हैं, हम रोगी होते हैं तो औषधिरूप से वे ही आते हैं, हम भोगी होते हैं तो भोग्यरूप से वे ही आते हैं, हमें गर्मी लगती है तो छायारूप से वे ही आते हैं, हमें सर्दी लगती है तो वस्त्ररूप से वे ही आते हैं। तात्पर्य है कि सब रूपों से परमात्मा ही हमें प्राप्त होते हैं। परन्तु हम उन रूपों में आये परमात्मा का भोग करने लग जाते हैं तो परमात्मा दुःखरूप से, नरकरूप से आते हैं।

प्रश्न :- परमात्मा अन्न, जल आदि नाशवान वस्तुओं के रूप में क्यों आते हैं ?

उत्तर :- हम अपने को शरीर मानकर अपने लिये वस्तुओं कि आवश्यकता मानते हैं और उनकी इच्छा करते तो परमात्मा भी वैसे ही बनकर हमारे सामने आते हैं। हम असत में स्थित होकर देखते हैं तो परमात्मा भी असत रूप से ही दीखते हैं। हम परमात्मा को जैसा देखना चाहते हैं, वे वैसे ही दीखते हैं-

‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भाजाभ्यम’ (गीता ४/११)

जैसे बालक खिलौना चाहता है तो माँ रूपये खर्च करके भी उसको खिलौना लाकर देती है, ऐसे ही हम जो चाहते हैं, परम दयालु परमात्मा उसी रूप से हमारे सामने आते हैं। अगर हम भोगों को न चाहें तो भगवान् को को भोगरूप से क्यों आना पड़े ? बनावटी रूप क्यों धारण करना पड़े ?

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