ये तो प्रेम की बात है उधो

krishna kanha bhajan lyrics ये तो प्रेम की बात है उधो

ये तो प्रेम की बात है उधो,

बंदगी तेरे बस की नहीं है,

यहाँ सर देके होते सौदे,

आशिकी इतनी सस्ती नहीं है ॥

प्रेम वालों ने कब वक्त पूछा,

उनकी पूजा में सुन ले ए उधो,

यहाँ दम दम में होती है पूजा,

सर झुकाने की फुर्सत नहीं है,

ये तो प्रेम की बात है उधो ॥

जो असल में हैं मस्ती में डूबे,

उन्हें क्या परवाह ज़िन्दगी की,

जो उतरती है चढ़ती है मस्ती,

वो हकीकत में मस्ती नहीं है,

ये तो प्रेम की बात है उधो ॥

जिसकी नजरो में है श्याम प्यारे,

वो तो रहते हैं जग से न्यारे,

जिसकी नज़रों में मोहन समाये,

वो नज़र फिर तरसती नहीं है,

ये तो प्रेम की बात है उधो ॥

ये तो प्रेम की बात है उधो,

बंदगी तेरे बस की नहीं है,

यहाँ सर देके होते सौदे,

आशिकी इतनी सस्ती नहीं है ॥

krishna kanha bhajan lyrics ये तो प्रेम की बात है उधो

नवग्रह स्तोत्र
नवग्रह स्तोत्र ऋषि वेद व्यास द्वारा लिखा गया था।
हिंदू धर्म में ग्रहों को देवता माना जाता है। नवग्रह ब्रह्मांड
की शक्तिशाली और प्रभावशाली शक्तियाँ हैं जो पृथ्वी
पर लोगों के जीवन प्रभावित करती हैं। एक जातक की
कुंडली में किसी न किसी ग्रह की स्थिति खराब चलती
ही रहती है। यदि ग्रहों के कारण प्रतिकूल प्रभाव मिल
रहा हो तो उसे शांत करने के लिए उस विशेष ग्रह से
प्रार्थना तथा उपाय किये जाते हैं। लोगों की इसी समस्या
को देखते हुए प्राचीनकाल में महर्षि व्यास जी ने नवग्रह
स्त्रोत की रचना की। नवग्रह स्तोत्र का पाठ करने से
सभी ग्रह शांत होते हैं।

( १) रवि:
जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम् ।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥ १॥

जपा के फूल की तरह जिनकी कान्ति है, कश्यप से जो
उत्पन्न हुए हैं, अंधकार जिनका शत्रु है, जो सब पापों को
नष्ट कर देते हैं, उन सूर्य भगवान को मैं प्रणाम करता हूँ।

( २) चंद्र:
दधिशङ्खतुषाराभं क्षीरोदार्णवसंभवम् ।
नमामि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम् ॥ २॥

दही, शंख अथवा हिम के समान जिनकी दीप्ति है,
जिनकी उत्पत्ति क्षीर-समुद्र से है, जो शिवजी के
मुकुट पर अलंकार की तरह विराजमान रहते हैं,
मैं उन चन्द्र देव को प्रणाम करता हूँ।

( ३) मंगळ:
धरणीगर्भसंभूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम् ।
कुमारं शक्तिहस्तं तं मङ्गलं प्रणमाम्यहम् ॥ ३॥

पृथ्वी के उदर से जिनकी उत्पत्ति हुई है, विद्युत पुंज के
समान जिनकी प्रभा है, जो हाथों में शक्ति धारण किये
रहते हैं, उन मंगल देव को मैं प्रणाम करता हूँ।

( ४) बुध:
प्रियङ्गुकलिकाश्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधम् ।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम् ॥ ४॥

प्रियंगु की कली की तरह जिनका श्याम वर्ण है, जिनके
रूप की कोई उपमा नहीं है, उन सौम्य और गुणों से युक्त
बुध को मैं प्रणाम करता हूँ।

( ५) गुरु:
देवानांच ऋषिणांच गुरुंकांचन सन्निभं ।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिं ॥५।।

जो देवताओं और ऋषियों के गुरु हैं, कंचन के समान
जिनकी प्रभा है, जो बुद्धि के अखण्ड भण्डार और तीनों
लोकों के प्रभु हैं, उन बृहस्पति को मैं प्रणाम करता हूँ।

( ६) शुक्रः
हिमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम् ।
सर्वशास्त्रप्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम् ॥ ६॥

तुषार, कुन्द अथवा मृणाल के समान जिनकी आभा है,
जो दैत्यों के परम गुरु हैं, उन सब शास्त्रों के अद्वितीय
वक्ता शुक्राचार्यजी को मैं प्रणाम करता हूँ।

( ७) शनि:
नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम् ।
छायामार्तण्डसंभूतं तं नमामि शनैश्चरम् ॥ ७॥

नील अंजन के समान जिनकी दीप्ति है,
जो सूर्य भगवान के पुत्र तथा यमराज के बड़े भ्राता हैं,
सूर्य की छाया से जिनकी उत्पत्ति हुई है, उन शनैश्चर
देवता को मैं प्रणाम करता हूँ।

( ८) राहू:
अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम् ।
सिंहिकागर्भसंभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम् ॥ ८॥

जिनका केवल आधा शरीर है, जिनमें महान पराक्रम है,
जो चन्द्र और सूर्य को भी परास्त कर देते हैं, सिंहिका के
गर्भ से जिनकी उत्पत्ति हुई है, उन राहु देवता को मैं
प्रणाम करता हूँ।

( ९) केतु:
पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम् ।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम् ॥ ९।।

पलाश के फूल की तरह जिनकी लाल दीप्ति है, जो
समस्त तारकाओं में श्रेष्ठ हैं, जो स्वयं रौद्र रूप और
रौद्रात्मक हैं, ऐसे घोर रूपधारी केतु को
मैं प्रणाम करता हूँ।

फलश्रुति :
इति व्यासमुखोद्गीतं यः पठेत्सुसमाहितः ।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्नशान्तिर्भविष्यति ॥ १०॥

नरनारीनृपाणां च भवेद्दुःस्वप्ननाशनम् ।
ऐश्वर्यमतुलं तेषामारोग्यं पुष्टिवर्धनम् ॥११।।
ग्रह:
ग्रहनक्षत्रजाः पीडास्तस्कराग्निसमुद्भवाः ।
ताः सर्वाः प्रशमं यान्ति व्यासो ब्रूते न संशयः ॥१२।।

॥ इति श्रीव्यासविरचितं नवग्रहस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

(१०) व्यास के मुख से निकले हुए इस स्तोत्र का जो
सावधानीपूर्वक दिन या रात्रि के समय पाठ करता है,
उसकी सारी विघ्न बाधायें शान्त हो जाती हैं।

(११) संसार के साधारण स्त्री पुरुष और राजाओं
के भी दुःस्वप्न जन्य दोष दूर हो जाते हैं।

(१२) किसी भी ग्रह, नक्षत्र, चोर तथा अग्नि से
जायमान पीड़ायें शान्त हो जाती हैं. इस प्रकार स्वयं
व्यास जी कहते हैं, इसलिए इसमें कोई संशय नहीं
करना चाहिए।

॥ इति श्रीव्यासविरचितं नवग्रहस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

सनातन धर्म शास्त्रों में वर्णित ये कार्य ना करें एवं वास्तुदोष निवारण उपाय, मासिक शिवरात्रि व्रत आज आओ जानें

१– सूर्य उदय के बाद ना उठें।
२– शैय्या पर भोजन ना करें।
३– दक्षिण दिशा की और मुंह करके भोजन ना करें।
४–खडे होकर जल ना पीएं।
५–अग्नि- कन्या- ब्राह्मण – गांय को भूलकर पैर से ना छुंए।
६–जुआ ना खेलें।
७– मदिरा ना पीएं।
८– पर स्त्री समागम ना करें।
९–अधिक भोजन ना करें।
१०– बासी दुर्गंध युक्त भोजन ना करें।
११–देहली पर ना बैठें।
१२– दिन में स्त्री समागम ना करें।
१३– मांसाहार ना करें।
१४–देर रात्रि भोजन ना करें।
१५–झूठ ना बोलें।
१६–शुभ कार्यों में विलम्ब ना करें।
१७–विवाह अधिक आयु में ना करें।
१८–भ्रूण हत्या ना करें।
१९– कच्चे फल ना तोडें।
२०– सूर्यास्त के बाद वृक्ष के पत्ते फल और टहनी ना तोडें।
२१–दूसरे का गेट और दीवार फांदकर ना जाएं।
२२–अग्निहोत्र को जल से ना बुझाएं।
२३– नदियों को दूषित ना करें।
२४–नाखून ना चबाएं।
२५– बे वजह सिर ना खुजलाएं।
२६–जल में मल – मूत्र त्याग ना करें और ना ही कुल्ला करें।
२७–उत्तर दिशा में सिर करके ना सोएं।
२८–अन्न की थाली को पैर ना मारें।
२९– क्रोध की अवस्था में भोजन ना करें।
३०–भोजन करते समय बातें ना करें।
३१–बिना बताए भोजन के समय किसी के घर ना जाएं।
३२– दीपक को फूंक मारकर ना बुझाएं।
३३–कन्या से अपने पैर ना दबवाएं।
३४–भोजन करने के बाद उछल कूद ना करें।
३५–नव प्रसूता गांय का दूध १० दिन तक ना पीएं।
३६–स्त्री पति से पहले भोजन ना करें।
३७– बांझ स्त्री का तिरस्कार ना करें।
३८– गर्भवती महिला को प्रताड़ित ना करें।
३९– अपनी प्रशंसा ना करें।
४०– अपनी कमजोरी दूसरों को ना बताएं।
४१– बीमार होने पर मैथुन ना करें।
४२–अतिथियों का अपमान ना करें।
४३– पूस – माघ – श्रावण – श्राद्ध – उपवास में स्त्री समागम ना करें।
४४–वृक्ष की जड और तने में मूत्र त्याग ना करें।
४५– सोए हुए को लांघकर ना जाएं।
४६–गुरु पत्नी को कु दृष्टि से ना देखें।
४७–भोजन के लिए लडाई ना करें।
४८– प्रसाद जब भी मिलें बांट कर ग्रहण करें।
४९– भोजन करते समय कोई बगल में बैठा हो उसे भी भोजन के लिए अवश्य पूछें।
५० — दूसरों से छिपा छिपाकर कोई वस्तु ना खाएं।
५१– उत्तेजक गानों के आवेश में नृत्य ना करें।
५२–अन्न के तुरंत बाद अधिक जल‌ ना पीएं।
५३– जो पैर छुए उसे आशीर्वाद और मंगल दें।
५४– घर आए व्यक्ति को जल‌ अवश्य पूछें।
५५– बिना सोचे विचारे वचन ना दें अथवा कसम आदि ना खाएं।
५६– क्षमा मांगने में विलम्ब ना करें।
योग वासिष्ठ पढें।
योग वासिष्ठ ही कल्याण और मुक्ति का शास्त्र है।

हिन्दू संस्कारश्राप और वरदान का रहस्य क्या है ?

  हम पौराणिक कथाओं में प्रायः यह पढ़ते-सुनते आये हैं कि अमुक ऋषि ने अमुक साधक को वरदान दिया या अमुक असुर को श्राप दिया। जन साधारण को या आजके तथाकथित प्रगतिवादी दृष्टिकोण वाले लोगों को सहसा विश्वास नहीं होता कि इन पौराणिक प्रसंगों में कोई सच्चाई भी हो सकती है। 

यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो हम पाएंगे कि श्राप केवल मनुष्यों का ही नहीं होता, जीव-जंतु यहाँ तक कि वृक्षों का भी श्राप देखने को मिलता है। वृक्षों पर आत्माओं के साथ-साथ यक्षदेवों का भी वास होता है। 

स्वस्थ हरा-भरा वृक्ष काटना महान पाप कहा गया है। प्राचीन काल से तत्वदृष्टाओं ने वृक्ष काटना या निरपराध पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं को मारना पाप कहा गया है। इसके पीछे शायद यही कारण है। उनकी ऊर्जा घनीभूत होकर व्यक्तियों का समूल नाश कर देती है।

 चाहे नज़र दोष हो या श्राप या अन्य कोई दोष--इन सबमें ऊर्जा की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। किसी भी श्राप या आशीर्वाद में संकल्प शक्ति होती है और उसका प्रभाव नेत्र द्वारा, वचन द्वारा और मानसिक प्रक्षेपण द्वारा होता है। 

रावण इतना ज्ञानी और शक्तिशाली होने के बावजूद उसे इतना श्राप मिला कि उसका सबकुछ नाश हो गया। महाभारत में द्रौपदी का श्राप कौरव वंश के नाश का कारण बना। वहीँ तक्षक नाग के श्राप के कारण पांडवों के ऊपर असर पड़ा।

गांधारी का श्राप श्रीकृष्ण को पड़ा जिसके कारण यादव कुल का नाश हो गया। गान्धारी ने अपने जीवन भर की तपस्या से जो ऊर्जा प्राप्त की थी उसने अपने नेत्रों द्वारा प्रवाहित कर दुर्योधन को वज्र समान बना डाला था।

अगर इस पर विचार करें तो गांधारी की समस्त पीड़ा एक ऊर्जा में बदल गई और दुर्योधन के शरीर को वज्र बना दिया। वही ऊर्जा कृष्ण पर श्राप के रूप में पड़ी और समूचा यदु वंश नाश हो गया।

श्राप एक प्रकार से घनीभूत ऊर्जा होती है। जब मन, प्राण और आत्मा में असीम पीड़ा होती है तब यह विशेष ऊर्जा रूप में प्रवाहित होने लगती है और किसी भी माध्यम से चाहे वह वाणी हो या संकल्प के द्वारा सामने वाले पर लगती ही है।

श्राप के कारण बड़े बड़े महल, राजा-महाराजाओं, जमीदारों का नाश हो गया। महल खंडहरों में बदल गए और कथा-कहानियों का हिस्सा बन गए।

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