kanha ji bhajan lyricsचलो रे भक्तों मैया की नगरी,
मैया की नगरी भक्तों मैया की नगरी…….
जब जम्मू आएगा तो मन घबराएगा,
जब कटरा आएगा तो मन ललचाएगा,
वहीँ से ले लेगे मैया की चुनरी,
चलो रे भक्तों मैया की नगरी………..
जो बाण गंगा है वहां पानी ठंडा है,
वहीँ पे नहाएंगी वहीँ पे धोएगे,
वहीँ पे धोएगे पापी की गठरी,
चलो रे भक्तों मैया की नगरी………..
जो अर्ध कुँवारी है वो गुफा जी प्यारी है,
जो गुफा में जाओगे तो मन घबराएगा,
जयकारा बोलेगे मैया की नगरी,
चलो रे भक्तों मैया की नगरी………..
जब भवन में जाओगे वहां मैया बैठी है,
जब दर्शन पाओगे तो खुश हो जाओगे,
खाली झोली भरेगी मैया की नगरी,
चलो रे भक्तों मैया की नगरी………..
जो भैरव बाबा है वो अंतिम यात्रा है,
जब दर्शन कर लोगे पूरा फल पाओगे,
आशा पूरी होगी मैया की नगरी,
चलो रे भक्तों मैया की नगरी………
kanha ji bhajan lyricsचलो रे भक्तों मैया की नगरी
श्रीराधे चरित्र~
श्रीराधे जू की चरित्र का वर्णन करने का सामर्थ्य ना तो ब्रह्मा जी में है,और ना ही श्री शारदा जी में ही हैं,
एक बार द्वारिका में श्री रुक्मिणी जी ने मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण के श्वांश-श्वांश से श्री राधे-श्री राधे नाम की ध्वंनि का गुंजन सुना और सुनकर चौंक गई,
उन्हें पूरी रात्रि नींद नहीं आई और प्रातःकाल होते ही रुक्मिणी जी श्रीकृष्ण से पूछ पड़ी हैं प्रभु! समस्त संसार,यहाँ तक की अखिल ब्रह्माण्ड अपने श्वांशो में सिर्फ आपके नाम का सुमिरन करते हैं,और आप अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी होकर श्रीराधे नाम का अपनी श्वांशो में सुमिरन करते हैं,आखिर ये श्रीराधे कौन हैं मुझे कृपा करके बताइये प्रभु। भगवान श्रीकृष्ण मुस्कराये और कहा है देवी! मैं अखिल ब्रह्माण्ड का स्वामी होते हुए भी,मेरी वाणी में इतना सामर्थ्य नहीं है कि मैं श्रीराधे जू के चरित्र का वर्णन कर सकूँ। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी भेंट श्रीराधे जू से अवश्य होगी,तब आपको आपके मन में उठ रहे समस्त प्रश्नों का उत्तर भी मिल जाएगा।
श्रीकृष्ण श्रीराधे के बिना नीरस हो जाते हैं,इसीलिए श्रीराधे कृष्ण की युगल उपासना को ही सर्वश्रेष्ठ उपासना माना जाता है। दोउ चंद्र हैं और दोउ चकोर हैं।
श्रीकृष्ण जब वृन्दावन छोड़कर जाने लगे तब वो श्रीराधे जू के पास आये और उन्होंने कहा हे राधे! मैं जा रहा हूँ,ब्रज में मेरी लीलाओं का विराम हो चुका है और अब मुझे धर्मस्थापना के लिए कार्य करना है,श्रीकृष्ण के इस प्रकार के वचनों को सुनकर पहले तो किशोरी जी को मूर्च्छा आ गई और वो भूमि पर गिर पड़ी,श्रीकृष्ण जी ने उन्हें अपनी गोद में उठाया और अपनी पीताम्बरी से उन्हें पंखा करने लगे,कुछ समय पश्चात श्रीप्रिया जू की मूर्च्छा भंग हुई, तब श्रीराधे जू ने कहा हे प्राण प्रियतम! मैं तो प्रेम हूँ,और प्रेम का स्वभाव बाँधना नहीं होता है,प्रेम तो वो अति पावन परम तत्त्व है जो सम्पूर्ण सांसारिक बंधनो से मुक्त करके जीवन मुक्त परमानन्द की स्थिति में आरुण करता है। प्रेम ही सेवा है…प्रेम ही भक्ति है।
श्रीराधे के इस प्रकार के वचनों को सुनकर श्रीकृष्ण के नेत्रों से अश्रुपात होने लगे,और उन्होंने कहा- हे मेरी स्वामिनि! आप धन्य हैं,सम्पूर्ण जगत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मुझेसे पहले आपको स्थान देगा,यदि जो मेरे नाम के बाद आपका नाम लेगा उसे मेरी कृपा भक्ति कभी प्राप्त नही होगी,ये मेरी बंशी अब आप रख लीजिये,क्योंकि ये बंशी केवल प्रेम के लिए ही बजती है,और अब मैं अपने प्रेम यानि आपसे से दूर जा रहा हूँ,इसलिए अब ये बंशी मुझसे नहीं बजेगी,उसके बाद जो श्याम ब्रज छोड़कर गये दुबारा नहीं लौटे। असल में श्रीराधे कृष्ण का विच्छेद कभी होता नहीं। बस सांसारिक दृष्टि से दोनों अलग हुए थे।
श्रीराधे जू ने अपने सारे श्रृंगारों का त्याग किया,श्रीराधे जू ने महल का भी त्याग कर दिया था,अब तो वो केवल एक वक्त ही गौमाता का दुग्धपान करती थी,वो इसलिए नहीं की वो जीना चाहती थीं,बल्कि इसलिए की उन्हें पूर्ण विश्वाश था की उनकी भेंट इसी जीवन में गोविन्द से अवश्य होगी,श्रीराधे जू ने सौ वर्षों तक नींद और विश्राम नहीं लिया,बस अहर्निश उनके ह्रदय और वाणी से श्रीकृष्ण नाम का जाप होता रहता था,रोम रोम श्रीकृष्ण के लिए तडपता था। उनका मन अहर्निश अपने प्राण प्रियतम श्रीकृष्ण के स्मरण में ही डूबा रहता था,यदि अपनी विरह ज्वाला को प्रकट कर देतीं तो ये विश्व भस्म हो जाता। श्रीराधे जु के अति सुन्दर लम्बे केश अब बड़ी-बड़ी जटाओं में परिवर्तित हो चुके थे,उनकी प्यारी अष्ट प्रमुख सखियाँ सदैव उनकी सेवा में लगि रहती थीं,इस तरह से जब सौ वर्षो की अवधि पूर्ण हुई तब एक बार सूर्य ग्रहण के समय श्रीराधा सहित सभी ब्रजवासियों को कुरुक्षेत्र आने का अवसर मिला,और तभी उन सभी की भेंट श्रीकृष्ण से हुई थी,तब श्रीकृष्ण जी श्रीराधे जू के चरणों में गिरकर बहुत रोए थे और कहा मैं महापापी हूँ…है राधे! मुझे दण्डित करो
मेरा रोम-रोम तुम्हारे प्रेम का ऋणी है,इस ऋण से मैं कभी भी उऋण नहीं हो सकता,श्रीराधे जू श्रीकृष्ण को अपने चरणों से उठाकर अपने ह्रदय से लगा लेती हैं। देवता लोग स्वर्ग से पुष्पों की वर्षा करने लगते हैं,दुन्दुभियां बजने लगती है,दसों दिशाओं में श्रीराधे कृष्ण नाम का संकीर्तन होने लगता है,ततपश्चात श्रीकृष्ण की समस्त पत्नियां श्रीराधे जू के दर्शन पाने को आतीं हैं,जब श्रीराधे जू को इस बात का पता चलता है तो वो दौड़कर श्रीकृष्ण की पत्नियों से मिलने उनके पास आती हैं,और श्री रुक्मिणी जी के चरणों में गिरकर श्रीराधे जू कहती हैं- हे रुक्मिणी जी! मुझे अपनी दासी बना लीजिये,मेरा रोंम-रोंम आपका ऋणी है,आपने मेरे गोविन्द की अपार सेवा की हैं,आपने मेरे गोविन्द को बहुत सुख दिया है,मैं आपका ये ऋण कभी चूका नहीं पाऊँगी। मुझे जन्म-जन्म के लिए अपनी दासी बना लीजिये,मैं आप सभी की बहुत-बहुत ऋणी हूँ।
तब श्री रुक्मिणी जी को श्रीकृष्ण जी की वो बात याद आ गई जब उन्होंने कहा था कि- आप जब श्रीराधे जू से मिलेंगी तब आपके मन में उठ रहे समस्त प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा। देवी रुक्मिणी भी रो पडतीं हैं…कहती हैं – हे देवी श्रीराधे! मैं धन्य हो गई तुम्हारी दर्शन पाकर। तुम्हारे प्रेम को कोटि कोटि नमन…
‼ श्रीराधे ‼
हे नाथ!हे मेरे नाथ!!आप बहुत ही कृपालुं हैं!!!