राधा अष्टमी व्रत में क्या खाना चाहिए
श्री कृष्ण के भक्तो के लिए कृष्ण जन्माष्टमी की तरह ही राधा अष्टमी भी काफी महत्त्व रखती है। जैसा कि हम सभी जानते है राधा बिन श्री कृष्ण अधूरे है कृष्ण से पहले राधा का नाम लिया जाता है। राधारानी को ही श्रीकृष्ण अपनी शक्ति मानते थे। इसलिए अगर आप श्रीकृष्ण को समर्पित जन्माष्टमी का व्रत रखते हैं तो आपको राधाष्टमी का व्रत भी जरूर रखना चाहिए। हर साल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के 15 दिन बाद, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को राधाष्टमी या राधा अष्टमी के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन राधा और कृष्ण की पूजा की जाती है।
राधा अष्टमी व्रत में क्या खाना चाहिए
राधा अष्टमी का पर्व, जो इस वर्ष 11 सितंबर, बुधवार को मनाया जाएगा, राधारानी के जन्म का पावन दिन है। इस दिन व्रत रखना विशेष रूप से पुण्यकारी माना जाता है और यह व्रत ठीक उसी प्रकार रखा जाता है जैसे एकादशी अथवा जन्माष्टमी का व्रत।इस दिन व्रत रखकर राधा रानी की पूजा अर्चना की जाती है फल, मिठाई व तुलसी का भोग लगाकर व्रत खोलना चाहिए। इस व्रत को करने वालों पर राधा रानी और श्री कृष्ण की असीम कृपा प्राप्त होती है। आइए जानते हैं कि राधा अष्टमी पर व्रत कैसे रखें और इसका महत्व क्या है।
राधा अष्टमी व्रत रखने का तरीका:
- निर्धारित दिन: इस साल राधा अष्टमी व्रत 11 सितंबर, बुधवार को रखा जाएगा।
- राधा रानी का व्रत रखने से पूर्व पीले रंग का झंडा अपने घर के छत पर लगाएं और इसके बाद कलश आदि की स्थापना करें।
- अनाज का त्याग: इस व्रत में एकादशी की तरह अनाज नहीं खाना चाहिए। अन्न का सेवन वर्जित होता है, इसलिए फल, दूध, और अन्य व्रत योग्य सामग्री का सेवन किया जाता है।
- निर्जला या जल के साथ व्रत: आप अपनी क्षमता और स्वास्थ्य के अनुसार निर्जला (बिना पानी के) या फलाहार (दूध, फल,) व्रत कर सकते हैं। यदि जल के साथ व्रत कर रहे हैं, तो दिनभर जल पी सकते हैं, लेकिन ध्यान रखें कि अनाज का सेवन न करें।
- व्रत खोलने का समय: व्रत को अगले दिन सूर्य उदय के बाद और 9 बजे से पहले खोला जाएगा । इसका उद्देश्य राधारानी की कृपा प्राप्त करना और व्रत की पूर्णता के साथ आशीर्वाद पाना है।
- व्रत खोलने से पूर्व : अगले दिन व्रत खोलने से पूर्व राधा रानी को गुलाब के पुष्प अर्पित करें और राधा कृष्ण युगल छवि की पूजा करें और राधा कृपा कटाक्ष का पाठ करें
बरसाना के गांव में रमा नाम की एक स्त्री रहती थी। उसकी शादी को 5-6 साल हो चुके थे, लेकिन संतान का सुख उसे अभी तक नहीं मिला था। मन में एक खालीपन था, जो हर दिन और बढ़ता जा रहा था। फिर एक दिन राधा अष्टमी का पावन उत्सव आया। गांव की स्त्रियों ने रमा को भी साथ चलने का निमंत्रण दिया और कहा, “बरसाना चलो! राधा रानी बहुत दयालु हैं। वे तुम्हारी गोद ज़रूर भरेंगी।”
रमा कभी भी 7-8 दिन अपने घर से बाहर नहीं रही थी, लेकिन इस बार उसके मन में एक दृढ़ विश्वास था कि राधा रानी उसकी मुराद पूरी करेंगी। उसके पति और सास ने भी उसे बरसाना जाने की इजाज़त दे दी। लेकिन जिस दिन यात्रा पर निकलना था, उसी दिन रमा के पैर में चोट लग गई, जिससे चलना भी मुश्किल हो गया था। पर उसने हार नहीं मानी। अपने विश्वास के बल पर वह स्त्रियों के साथ यात्रा पर निकल पड़ी।
ट्रेन में सभी महिलाएं राधा-कृष्ण का भजन और कीर्तन करते हुए जा रही थीं। रमा भी उनके साथ मंत्रमुग्ध होकर भगवान के नाम में डूबी थी। बरसाना पहुंचते ही वह स्नान करके राधा रानी के मंदिर जाने को तैयार हो गई। लेकिन जैसे ही सीढ़ियां चढ़ने लगी, पैर की चोट ने उसे रोक लिया। उसने बाकी स्त्रियों से कहा, “तुम लोग आगे जाओ, मैं धीरे-धीरे आ रही हूं।”
कुछ सीढ़ियां चढ़ने के बाद, रमा का पैर फिर मुड़ा और वह गिरने ही वाली थी कि अचानक एक सात-आठ साल की कन्या ने उसका हाथ थाम लिया। “मैया, ऐसे कैसे गिरने देती तुम्हें!” वह बालिका बोली। रमा ने पूछा, “बेटी, तुम्हारा नाम क्या है?” बालिका ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “मेरा नाम लाडो है, यहीं पास में रहती हूं।” रमा के चेहरे पर एक अजीब सी शांति छा गई। दोनों सीढ़ियों पर बैठकर बातें करने लगे।
लाडो ने मासूमियत से पूछा, “मैया, मेरे लिए क्या लाई हो?” रमा थोड़ी चौंकी, फिर बोली, “मैं कल तुम्हारे लिए कुछ लाऊंगी, तुम्हें क्या पसंद है?” लाडो ने चहकते हुए कहा, “मुझे नथनी, गले का हार, कान के कुंडल, चूड़ियां, मेहंदी और घाघरा-चोली बहुत पसंद हैं।” रमा उसकी मासूम बातें सुनकर हंस पड़ी और वादा किया कि वह अगले दिन कुछ न कुछ लाएगी।
अगले दिन, रमा ने वादे के मुताबिक बाजार से गले का हार और चूड़ियां खरीदीं और लाडो से मिलने पहुंच गई। लाडो ने हार और चूड़ियां देखकर कहा, “बस इतना ही? और कुछ नहीं लाईं?” उसने मुंह फुला लिया। रमा ने हंसते हुए कहा, “अरे, मैं 8 दिन यहीं हूं, रोज तुम्हारे लिए कुछ न कुछ लाऊंगी।” यह सुनकर लाडो खुश होकर रमा की गोदी में बैठ गई। रमा के लिए वो पल ऐसा था जैसे उसे संतान मिल गई हो।
दिन गुजरते गए और रमा लाडो के लिए रोज नई-नई चीज़ें लाती रही। एक दिन रमा ने लाडो से कहा, “अब यह सारी चीज़ें पहनकर भी तो दिखा, कैसी लगती हैं!” लाडो ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “कल राधा अष्टमी है, कल पहनूंगी।” उस दिन लाडो के साथ एक छोटा लड़का भी था। रमा ने पूछा, “यह कौन है?” लाडो ने कहा, “यह कनुआ है, मेरे साथ ही रहता है।” रमा ने सोचा कि वह भी उसके लिए कुछ लाएगी और अगले दिन उसने एक मोर मुकुट और धोती खरीदी।
राधा अष्टमी का दिन आया, रमा सीढ़ियों पर पहुंची और इंतजार करने लगी, लेकिन लाडो कहीं नहीं दिखी। बहुत इंतजार के बाद वह मंदिर पहुंची, वहां कीर्तन और नृत्य हो रहा था। भीड़ को पार करते हुए जब वह मंदिर के गर्भगृह में पहुंची, तो उसने देखा कि राधा रानी और ठाकुर जी ने वही हार, चूड़ियां और मुकुट पहने हुए थे, जो वह लाडो और कनुआ के लिए लाई थी।
उस क्षण रमा को समझ आया कि वह लाडो और कनुआ कोई और नहीं, स्वयं राधा रानी और कृष्ण भगवान थे। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे, और वह जैसे पत्थर की हो गई। उसके मन में अब कोई शंका नहीं थी। भगवान ने स्वयं उसकी गोद में आकर उसे मातृत्व का सुख दिया था।
इसके बाद रमा ने बरसाना से कभी वापसी नहीं की। वह दिन-रात सीढ़ियों पर बैठकर अपने आंसुओं से सीढ़ियां धोती और राधा रानी को पुकारती रहती। वर्षों बाद, एक दिन वही लाडो फिर से आई, रमा का हाथ पकड़ा और उसे अपनी अटारी में ले गई। “देखो, मैया, मैं आ गई हूं!” कहते हुए लाडो ने बाहें फैलाईं, और रमा को अपने गले से लगा लिया। उस दिन रमा अपने पार्थिव शरीर को त्यागकर सदा के लिए अपनी लाडो के पास चली गई।
इस कहानी से यह सिखने को मिलता है कि भगवान से की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती। चाहे हमारा उद्देश्य सांसारिक हो या आध्यात्मिक, भगवान एक दिन अवश्य हमें हमारी मनोकामना पूरी करते हैं।